________________
कल्याणकारिणी क्रिया
११
सिर और पैरों को अपनी शरीर रूपी खोपड़ी के अन्दर कर लेता है और अनेक प्रहारों को सहकर भी उनसे प्रभावित नहीं होता, उसी प्रकार मनुष्य को भी अपनी शुभ- भावनाओं को समेटकर अन्तरात्मा में छिपा लेना चाहिये तथा अशुभ भावनाओं की तरंगों को निर्थरक बह जाने देना चाहिये ।
इसका परिणाम यह होगा कि अशुभ भावनाओं का प्रभाव मन पर अल्पकाल तक ही रहेगा । वास्तव में देखा जाये तो चरित्र का निर्माण मन में उठने वाली इन शुभ और अशुभ तरंगों के द्वारा ही होता है । ये उठती हैं और उठकर पुनः समाप्त भी हो जाती हैं । किन्तु इनकी असलियत समाप्त नहीं हो पाती । जिस प्रकार आग लगने पर उसे बुझा दिया जाता है पर कितना भी प्रयत्न क्यों न किया जाये उसका कुछ न कुछ चिह्न उस स्थान पर अवश्य रहता है । ठीक इसी प्रकार मन में उठने वाली भावनायें भी अपनी कुछ न कुछ छाप अवश्य छोड़ जाती हैं । यद्यपि वे ऊपर से लक्षित नहीं होती किन्तु अज्ञात रूप से अपना काम करती रहती हैं अर्थात् मन के द्वारा शारीरिक क्रियाओं पर प्रभाव डालती हैं। बार-बार उठने वाली मन की लहरें जो कम या अधिक प्रभाव मन पर डालती हैं, वही संस्कार कहलाते हैं । प्रत्येक व्यक्ति का चरित्र इन्हीं संस्कारों के द्वारा निर्मित होता है । अगर शुभ संस्कारों की मुख्यता रही तो चरित्र उत्तम बनता है, और अशुभ संस्कारों की मुख्यता रही तो वह निम्न श्रेणी का माना जाता है । संस्कार मनुष्य के अनजाने में ही उसके कर्मों पर अपना प्रभाव डालते रहते हैं । इसलिये प्रत्येक आत्म-कल्याण के इच्छुक को चाहिये कि वह मन में उठने वाली अशुभ भावनाओं का प्रभाव मन पर कम से कम पड़े, इस प्रयत्न में रहे । ऐसा करने पर उसके मन में शुभ विचारों की प्रबलता रहेगी और वे अशुभ विचारों को दबाते हुये मनुष्य को शुभ कर्म या शुभ क्रियायें करने के लिये प्रेरित करते रहेंगे तथा उसके चरित्र में दृढ़ता आ सकेगी । चारित्रिक दृढ़ता के लिये अभ्यास की आवश्यकता अनिवार्य है । उसके अभाव में उत्तम से उत्तम संस्कार भी अल्पकाल में ही लोप हो जाते हैं ।
असाधारण शक्ति का स्रोत - अभ्यास
रूप में प्रकट होता
अभ्यास की शक्ति का वर्णन शब्दों में किया जाना सम्भव नहीं है । अभी मैंने आपको बताया है कि मन में निरन्तर उठने वाली भावनायें धीरे-धीरे संस्कार बन जाती हैं और संस्कारों का समूह चरित्र के है । जब मन में अधिक संस्कार इकट्ठे हो जाते हैं तो बन जाते हैं और वह स्वभाव तब कायम रहता है, जबकि मनुष्य अपने संस्कारों के अनुसार कर्म करने का प्रयत्न अथवा अभ्यास करता रहे ।
वे
मनुष्य का स्वभाव
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org