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________________ १० आनन्द प्रबचन : तृतीय भाग चरित्र निर्माण सर्वप्रथम प्रश्न यह उठता है कि चरित्र क्या है ? संक्षिप्त में इसका उत्तर यही हो सकता है कि मनुष्य की भावनाओं और उसकी मनःस्थितियों का सम्मिलित रूप ही चरित्र कहलाता है। मनुष्य का मन भावनाओं का एक अक्षय भण्डार होता है । इसे सागर की उपमा दी जाय तो भी अतिशयोक्ति नहीं है । सागर में जिस प्रकार प्रतिपल असंख्य लहरें आती और जाती हैं उसी प्रकार मन में भी निरन्तर भावनाओं की लहरें उठती रहती हैं। उनमें कुछ शुभ और कुछ अशुभ होती हैं। यही भावनायें मनुष्य के चरित्र का निर्माण करती हैं। शुभ भावन यें उत्तम संस्कारों को बनाती हैं तथा अशुभ भावनायें कुसंस्कारों को । व्यक्ति अगर अपनी कुभावनाओं पर काबू नहीं रख पाता तो उसके चित्त में कुसंस्कारों का बीज जम जाता है और वही धीरे-धीरे उसे कुकर्म करने के लिये प्रेरित करता है तथा जो व्यक्ति दुर्भावनाओं के वेग में नहीं बहता, उन्हें लहरों के समान आने और जाने देता है वह अपने हृदय में शुभ भावनाओं को रोककर सुसंस्कारों का निर्माण करता है तथा उनसे प्रेरणा पाकर सुकर्म करने लगता है। __ये संस्कार ही मानव के चरित्र का निर्माण करते हैं । अगर संस्कार शुभ हुए तो वह सच्चरित्र और संस्कार अशुभ हुए तो दुष्चरित्र व्यक्ति कहलाता है । कोई भी मनुष्य अपने जन्म से ही महान् या निष्कृष्ट नहीं पैदा होता, वह शनैः-शनै: अपने एकत्रित किये हुए संस्कारों के बल पर ही उत्तम या अधम बनता है। मनुस्मृति में कहा गया है : 'जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते।" जन्म से मनुष्य शूद्र ही पैदा होता है, किन्तु संस्कारों के उत्तम होने पर द्विज कहला सकता है। कछुए के समान बनो! एक बात और भी ध्यान में रखने की है कि जिस प्रकार सागर में लहरें अवश्यमेव उठती हैं, उन्हें उठने से रोका नहीं जा सकता, उसी प्रकार मन के इस अथाह समुद्र में भी भावनाओं की तरंगों को उठने से नहीं रोका जा सकता । इनको रोकना अथ्वा मन की भावनाओं पर काबू पा लेना सम्भव नहीं है। दूसरे शब्दों में, मन को मारना कठिन है। फिर सवाल यह उठता है कि आखिर किया क्या जाय, जिससे मन की इन अशुभ भावनाओं के प्रभाव से बचा जा सके । इसका एकमात्र उपाय यही है कि मन:-सागर में उठने वाली कुभावनाओं को वे जिस प्रकार जन्म लेती हैं, उसी प्रकार बहते हुये निरर्थक जाने दिया जाये । जिस प्रकार कछुआ अपने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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