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कल्याणकारिणी क्रिया
अहिंसा का पालन करना पड़ेगा, सत्य बोलना होगा, चोरी नहीं करनी होगी; ब्रह्मचर्य से रहना और सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करना पड़ेगा।"
उस व्यक्ति ने कहा- "मैं इन सबका पालन करूंगा।" परिणाम यह हुआ कि उसे दीक्षा दे दी गई।
किन्तु स्वाभाविक है कि कोई भी आदत जल्दी नहीं छूटती। एक दिन रात्रि के समय उस नवदीक्षित साधु ने अपनी पुरानी आदत के अनुसार किसी सन्त का रजोहरण, किसी का बिछावन, किसी की माला और किसी की पूजनी आदि अनेक वस्तुयें इधर की उधर कर दी।
अब हुआ क्या कि अँधेरे स्थानक में सभी सन्त अपनी-अपनी आवश्यक वस्तुओं को खोजने में परेशान होने लगे। बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह गड़बड़ कैसे हो गई ? ___ कारण जानने के लिये गुरु महाराज ने सभी से पूछना आरम्भ किया कि यह कार्य किसने किया और क्यों क्यिा ? जब नवदीक्षित साधु से यह बात पूछी गई तो उसने कहा- "गुरुदेव ! यह सब मैंने ही किया है।"
__गुरुजी ने पुनः प्रश्न किया- "तुमने ऐसा क्यों किया ? मैंने दीक्षा देने से पूर्व ही कहा था कि किसी की भी वस्तु बिना उसकी आज्ञा से नहीं उठानी होगी।"
सन्त ने हाथ जोड़कर कहा- "गुरुदेव ! मैंने किसी की भी चोरी नहीं की । एक भी वस्तु चुराकर अपने पास नहीं रखी। केवल आदत थी इसलिये आज इन वस्तुओं को इधर-उधर रख दिया है।"
गुरुजी हँस पड़े और बोले-"भाई ! यह ठीक है कि तुमने किसी की वस्तु नहीं चुराई और तुम सत्य भी बोले हो किन्तु इस बात को भी ध्यान में रखो कि दूसरे की वस्तु को भले ही चुराया न जाये पर बिना उसकी आज्ञा के हाथ भी लगाया जाये तो साधु को चोरी का दोष लगता है और उसके आचरण में अशुद्धता आती है।" __ उस साधु को अपनी भूल समझ में आ गई और फिर कभी भी उसने वैसा नहीं किया।
बंधुओ ! आप भी समझ गये होंगे कि वह सन्त चोरी करना बुरा समझते थे और सत्य भी बोलते थे किन्तु आचरण में तनिक-सी असावधानी भी उनके जीवन को अशुद्ध बना रही थी जिसके लिये उन्हें सावधान होना पड़ा।
__ आशा है आपको ध्यान होगा कि हमारा आज के प्रवचन का मूल विषय क्रिया-रुचि को लेकर ही चल रहा है तथा हमें इसके महत्त्व को समझाते हुये अपनी क्रिया अयवा आचरण को शुद्धि तथा दृढ़ता के विषय से समझना है।
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