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________________ २५८ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग कठिन हो गया है । प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने सम्प्रदाय या अपने-अपने क्रियाकाण्ड में ही धर्म मानते हैं। किन्तु यह सब कितना गलत है यह बात एक कवि ने अपने शब्दों में बड़े ही सुन्दर तरीके से कही है । वह इस प्रकार है आत्मभेद बिन भर भटकते, सन धोखे को टाटी में। कोई धातु में ईश्वर मानत, कोई पत्थर माटी में । वृक्ष में कोई, जल में कोई, कोई जंगल और घाटी में । कोई तुलसी, रुद्राक्ष में कोई, कोई मुद्रा और लाठी में । भगत कबीर, कहे कोई नानक, कोई शंकर परिपाटी में। कोई निम्बार्क, रामानुजी कोई, कोई बल्लभ परिपाटी में। कोई दादू कोई गरीब दासी, कोई गेरू रंग की ठाटी में । कह 'आजाद' भेष जो धारे, जले नरक की भाटी में ।। इस प्रकार आत्मा के भेद को समझे बिना व्यक्ति भिन्न-भिन्न वस्तुओं में भिन्न भिन्न स्थानों में और भिन्न-भिन्न धर्म-प्रवर्तकों की परिपाटियों में ईश्वर को खोजते फिरते हैं तया नाना प्रकार के क्रियाकाण्डों को करने में तया तुलसी की माला, रुद्राक्ष आदि धारण करने में धर्म कर लेने की इतिश्री मानते हैं । पर वे कितनी भूल में रहते हैं ? भगवान महावीर से उनके शिष्य ने एक बार पूछा-भगवन् ! धर्म का स्थान कहाँ है ? अर्थात् -धर्म कहाँ पर रहता है ? भगवान का संक्षिप्त उत्तर था "उज्जूभूयस्स चिट्ठइ धम्मं ।" अर्थात्—'शुद्ध हृदय में धर्म रहता है।" जिस व्यक्ति का हृदय शुद्ध या सरल है, धर्म को केवल वहीं समझना चाहिये । जिसके मन में विषय, कषाय, राग, द्वेष तथा मोह आदि का प्रबल वेग रहता है वहाँ धर्म का अस्तित्व ढूढ़े नहीं मिलता, चाहे वह कैसे भी भेष क्यों न धारण करले अथवा मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरुद्वारा, स्थानक या उपासरे में जाकर पूजा-पाठ, सामायिक, प्रतिक्रमण आदि नाना प्रकार को क्रियाएँ दिन रात क्यों न करता रहे । सच्चा धर्म वही है, जिसके द्वारा मानव की आत्मा में सत्यता, व्यापकता, निर्मलता एवं उदारता आ सके । धर्म संसार के समस्त प्रकारों के संतापों का शमन करने के लिए होता है तथा प्रत्येक प्रकार की अशांति को दूर करके शांति की स्थापना करना चाहता है। किन्तु जहाँ धर्म को लेकर मतभेद हो जाता है, इतना ही नहीं, रक्तात तक की नौबत आ जाती है तो संसार के सामने धर्म विकृतरूप में सामने आता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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