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________________ समय कम: : मंजिल दूर २५६ जैन धर्म ने इसीलिये स्याद्वाद सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है । स्याद्वाद सिद्धान्त विश्व के समस्त धर्मों सम्प्रदायों, मतों एष दर्शनों का समन्वय करता है । वह बताता है कि जगत के सभी धर्म और दर्शन किसी अपेक्षा से सत्य के ही अंश हैं । किन्तु जब लोग उन प्रत्येक अंशों को एक दूसरे से न मिलाकर एक-एक अंश को ही पकड़कर बैठ जाते हैं तथा सत्य होते हुए भी अन्य अंशों को गलत साबित करते हैं, तो वह धर्म उनके लिये संसार पार कराने वाली नौका न बनकर मझधार में डुबाने का कारण बन जाता है । प्रत्येक अन्य धर्म को मिथ्या कहकर अस्वीकृत करने से मनुष्य मिथ्यावादी तथा अन्धविश्वासी बन जाता है । इन दोषों का निवारण करते हुए स्याद्वाद सिद्धान्त मानव को विभिन्न धर्मों का समन्वय करने की शिक्षा देता है । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने कहा भी हैउदधाविव सबं सिन्धवः, समुदीर्णास्त्वयि नाथ ! दृष्टयः । न च तासु भवान् प्रदृश्यते, प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः ।। अर्थात् - हे नाथ ! जिस प्रकार समस्त नदियाँ सागर में पहुँचकर उसमें मिल जाती हैं, उसी प्रकार विश्व के समस्त दर्शन आपके शासन में मिल जाते हैं तथा जिस प्रकार भिन्न भित्र दर्शनों में आप दिखाई नहीं देते उसी प्रकार भिन्न-भिन्न नदियों में समुद्र दिखाई नहीं देता । जैसे समस्त नदियों का आश्रय समुद्र है, वैसे ही समस्त दर्शनों के लिये आप आश्रय स्थल हैं । एक उर्दू भाषा के कवि ने भी यही बात कही है शेख काबां से गया वां तक ब्राह्मण देर से । एक थी दोनों की मंजिल, फेर था कुछ राह का ॥ कितनी सुन्दर और सत्य बात है ? कि काबा से अगर मुसलमान जन्नत में गया तो ब्राह्मण मन्दिर से शिवपुर चला गया । फर्क क्या पड़ा ? रास्ते का फेर ही तो था । इसलिए बन्धुओ ? अगर हमें अपनी आत्मा को कर्मों से मुक्त करना है, तो दूसरों के अवगुण न देखकर अपने अवगुण ही देखना चाहिये तथा दूसरों की निन्दा न करके अपने ही दोषों की आलोचना करनी चाहिए । ऐसा करने पर ही हमें आत्म-स्वरूप का ज्ञान हो सकता है तथा हम मुक्ति के मार्ग पर बढ़ सकते हैं । पं० शोभाचन्द्रजी भारिल्ल ने भी कहा है Jain Education International अपने अवगुण की जो निन्दा करते हैं । पर परनिन्दा से सदा काल डरते हैं ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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