SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 274
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समय कम : मंजिल दूर २५७ कहते हैं - जीवात्मा अब तो सम्हल ! जीवन बीत गया सो बीत गया, पर अब जो बचा है उसे आत्म-उत्थान में लगा।' बुद्धिमान वही है जो बीते हुए की परवाह न करके बचे हुए की सम्हाल करे । कुएं में सौ हाथ रस्सी चली जाने पर भी अगर अंगुल भी बची रहती है तो मानव उसके द्वारा अपने लौटे को भरकर खींच लाता है। एक कहावत भी है गई सो गई अब राख रही को' -जो उम्र बीत गई, वह तो चली ही गई, उसके लिये दुःख या पश्चा. ताप करने से कोई लाभ नहीं है, आवश्यकता केवल यही है कि बची हुई का सदुपयोग किया जाय । मराठी भाषा में भी कहा गया है "गेली ती गंगा, आणि राहिले ते तीर्थ ।" अर्थात् –गई सो गंगा और रहा सो तीर्थ । वही बात है कि जितना आयुष्य बीत गया उसे गंगा के समान प्रवाहित हुआ समझो और जो बचा है उसे तीर्थ मानकर उसकी आराधना करके ही जीवन को सफल बनायो। अनन्तकाल भी जब आत्मा को नानाप्रकार की वेदना भोगते हुए तथा भिन्न-भिन्न योनियों में भटकते हुए बीत गया तो उसकी तुलना में मनुष्य जन्म है ही कितना ? अगर सौ वर्ष की भी आयु मान ली जाय तो उनमें से पचास वर्ष तो रात्रि को सोने में व्यतीत हो जाते हैं । बाकी रहे पचास; जिनमें से साढ़े बारह वर्ष बचपन होने के कारण खेलने-कूदने में और अन्त के साढ़े बारह वर्ष वृद्धावस्था की आशक्ति के निकल जाते हैं । अब रहे केवल पच्चीस वर्ष उनमें भी आपको चैन कहाँ है ? कभी बीमारी आ गई, वह नहीं आई तो माता-पिता का वियोग हो गया। धन नहीं हुआ तो दरिद्रता से जूझना पड़ा। पत्नी, सन्तान और परिवार का पालन-पोषण करना पड़ा। इसी प्रकार की सैकड़ों उलझनों की जाल आपके सामने रहती है और उसी में फड़फड़ाते हुए यह आत्मारूपी पखेरू एक दिन उड़ जाता है । ___अभिप्राय यही है कि मानव जीवन अत्यन्त थोड़े समय का है और आत्मा के लिए सफर बहुत लम्बा है । इसी सफर के बीच उसे मानव पर्याय रूपी अल्प समय मिला है तो बिना समय नष्ट किये उसे अपनी मोक्ष-रूपी मंजिल पर पहुंचने का प्रयत्न करना है। तो प्रश्न अब यह उठता है कि मुक्ति-रूप सिद्धि प्राप्त करने के लिये क्या प्रयत्न किया जाय ? अथवा परमात्मा को प्राप्त करने का मार्ग कोन सा है ? इस प्रश्न का उत्तर बड़ा गम्भीर है। आज के युग में धर्म को समझना बड़ा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy