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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
मस्तक पीट लिया और सोचने लगा मेरी तकदीर ही जब ऐसी है और इसमें यही खाना लिखा है तो मैं कहीं भी क्यों न चला जाऊँ मिलेगा तो यही । ऐसा विचार कर वह पुनः अपने घर लौट आया और सन्तोष पूर्वक दिन गुजारने लगा।
कहने का अभिप्राय यही है कि भाग्य अथवा कर्म सदा व्यक्ति के साथ रहते हैं । ये प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देते किन्तु अनन्त शक्ति सम्पन्न जीवात्मा को भी ये पछड़ देते हैं, अपना भुगतान किये बिना नहीं छोड़ते। जिस प्रकार सूर्य और चन्द्र महान शक्तिश ली होते हैं। समग्र संसार को जीवन प्रदान करने की शक्ति रखते हैं किन्तु राहु और केतु उन्हें भी अपने शिकंजे में दबोच लेते हैं तथा उनके तेज और प्रकाश को रोक देते हैं। इसी प्रकार अात्मा के अनन्त शक्तिशाली होते हुए भी कर्म उसकी समस्त शक्ति पर पानी फेरते हुए उसे असहाय बना देते हैं।
इसीलिए भगवान महावीर स्वामी का फरमान है कि कर्मों का विपाक बड़ा गाढ़ा होता है अतः क्षण मात्र भी प्रमाद किये बिना उन्हें नष्ट करने का प्रयत्न करो । क्योंकि जीवन तो थोड़ा है और कर्म रूपी मेरू पर्वत को पार करके जीवात्मा को अपने लक्ष्य तक पहुंचने का प्रयत्न करना है । किसी कवि ने भी कहा है
समय है कम और सफर है लंबा,
दूर है मंजिल तेरी ! कितने मार्मिक शब्द हैं ? कहा गया है-अरे जीव ! तेरा यह मानव-जन्म रूपी समय तो बहुत ही थोड़ा है और मुक्ति-रूपी मंजिल बहुत दूर है । अतः स्वाभाविक ही है कि अविराम गति से और बिना समय नष्ट किये तू उस
ओर बढ़ता चल । अन्यथा प्रकाश होते ही तुझे मार्ग सुझाई नहीं देगा और परिणामस्वरूप न जाने कितने समय तक इधर-उधर भटकना पड़ेगा।
हमारे शास्त्रों में कहा गया है - कोई जीव अगर विग्रह-गति में पड़ जाय तो उसका छुटकारा होना कठिन हो जाता है । विग्रह-गति किसे कहेंगे? इसका अर्थ है जाना तो था सीधा उधर और चल दिया दूसरी ओर। विग्रह-गति में मंजिल दूर हो जाती है क्योंकि भटकना पड़ता है।
इस मंजिल में कोई अपने साथ पुण्य लाता है और कोई पाप । पुण्यवान को सुख प्राप्त होता है और पुण्यहीन को दुःख । सुख और दुःख, दोनों ही जाल हैं जिनमें उलझकर प्राण आत्म-साधना का ख्याल नहीं रख पाता। पर ऐसे कब तक काम चलेगा ? अनन्तकाल भटकते हो गए और पुनः इसी चक्कर में पड़ गये तो फिर अनन्तकाल ऐसे ही भटकना होगा। अतः महापुरुष बार-बार
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