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समय कम : मंजिल दूर
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गया और शरीर अपंग हुआ अथवा दीर्घ आयुष्य नहीं मिला तब भी मिला हुआ मानव-जन्म व्यर्थ चला जाता है । अनेक शिशु माता की कुक्षि से बाहर आते ही इस संसार को छोड़ जाते हैं अनेक शैशवावस्था को पार भी नहीं कर पाते और अनेक शैशवावस्था को पार कर भी लेते हैं तो युवावस्था प्राप्त करते न करते ही काल के ग्रास बन जाते हैं। जीवन की क्षणभंगुरता के विषय में कबीर जी ने कहा भी है :
पानी केरो बुदबुदो, अस मानष की जात । देखत ही छिप जाएगा, ज्यों तारा परभात ।। कबिरा पानी हौज का, देखत गया बिलाय ।
ऐसे जियरा जाएगा, दिन दस ढोली लाय ॥ यह मनुष्य-जीवन पामी के बुलबुले के समान है। जिस प्रकार पानी का बुलबुला उठता है और क्षण मात्र में विलीन हो जाता है उसी प्रकार मनुष्य का जीवन भी क्षण मात्र में समाप्त हो जाता है। दूसरे शब्दों में प्रभात का तारा जिस प्रकार देखते देखते ही गायब हो जाता है उसी प्रकार मनुष्य देह से आत्मा चारों ओर खड़ी हुई भीड़ को देखते-देखते ही अदृश्य रूप से पल मात्र में ही किसी अज्ञात योनि की ओर प्रयाण कर जाता है।
कबीर जी ने आगे भी कहा है-जिस प्रकार पानी से भरे हुए घड़े से थोड़ा-थोड़ा करते हुए कुछ ही दिनों में पानी समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार यह जीवात्मा भी दस-पाँच दिन की मियाद समाप्त होते ही देह से निकल जायेगा।
इसीलिए भगवान ने बार-बार कहा है-'समय मात्र का भी प्रमाद मत करो, तथा जीवन के प्रत्येक पल को सार्थक बनाने का प्रयत्न करो। जहाँ तक भी बन सके सन्तों की संगति करो, शास्त्र श्रवण करो तया उनमें दी हुई शिक्षा को जीवन में श्रद्धापूर्वक उतारते हुए अपने चारित्र को समुज्ज्वल बनाओ।'
___ अगर ऐसा नहीं किया, अर्थात् जिन वचनों पर श्रद्धा नहीं रखी तथा उन्हें सम्यक् प्रकार से आचरण में न उतार कर उनके अनुरूप क्रिया न को तो वह ज्ञान कोई भी शुभ फल प्रदान नहीं कर सकेगा तथा उससे जीवन के उद्देश्य की सिद्धि हासिल नहीं हो सकेगी। वह ज्ञान उसी प्रकार साबित होगा जैसे चिकने घड़े पर पानी डाला जाय तो वह योंही बह जाता है, अथवा राजस्थानी कहावत में -रीते चूल्हे फूक' यानी चूल्हे में आग तो है नहीं पर बारबार उसमें फूक लगाई जाय तो क्या होगा ? क्या आग जलेगी वहां पर? नहीं ! इसी प्रकार श्रद्धा और ज्ञान होने पर भी अगर उनके अनुसार क्रियाएँ की जाएँ तो कर्मों का नाश हो सकेगा ? या नवीन कर्मों के बन्धन होने से हम बच सकेंगे क्या? नहीं।
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