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________________ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग शास्त्र की गाथा में आगे कहा गया है— कर्मों का विपाक बड़ा गाढ़ा होता है अर्थात् उन्हें भुगतना ही पड़ता है उन्हें भुगते बिना किसी भी प्रकार छुटकारा नहीं मिल सकता । विक्रम चरित्र में कहा गया है ; २५४ "अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् "" इस आत्मा ने जैसे भी शुभ अथवा अशुभ कर्म किये हैं, उन्हीं के अनुसार इस आत्मा को शुभ अथवा अशुभ फल अवश्य ही भोगना पड़ता है । गजसुकुमाल मुनि अपने निन्यानवे लाख भव से पहले स्त्री की योनि में थे । उनके एक सोत थी और वह मर चुकी थी । सोत का एक लड़का था जिसे वह फूटी आंखों से भी नहीं देख सकती थी । इसीलिए उस लड़के की सार-सम्हाल में वह ध्यान नहीं देती थी । एक बार उस लड़के के मस्तक में असंख्य फोड़े-फुंसी हो गये । किन्तु उनकी यथाविधि चिकित्सा न होने के कारण बच्चा बहुत तकलीफ पाने लगा । यह देखकर पास-पड़ोस के व्यक्तियों ने उस स्त्री की बड़ी भर्त्सना की तथा सौत-पुत्र की सार-सम्भाल न करने के लिए उलाहने दिये । स्त्री यह सब सुनकर क्रोध से आग-बबूला हो गई तथा लड़के के प्रति ईर्ष्या से भर उठी । गुस्से ही गुस्से में उसने एक बहुत मोटी रोटी बनाई और तबे पर डाल दी । जब रोटी अधसिकी और आग के समान खूब गरम हो गई तो उसने तबे पर से उठाकर उसे अपनी सोत के उस शिशु के मस्तक पर रख दी। नन्हा बच्चा दर्द के मारे तिलमिला उठा और कुछ देर में ही छटपटाकर उसने प्राण त्याग कर दिये । उस निर्दयी स्त्री का जीव ही निन्यानवे लाख भव के पश्च तु गजसुकुमाल के रूप में इस पृथ्वी पर आया और उस बालक का जीव सोमिल ब्राह्मण के रूप में, जिसने अपने मस्तक पर गरमागरम रोटी रखने का बदला लेने के लिए गजसुकुमाल के मस्तक पर अंगारे रखे । कहने का अभिप्राय यही है कि निकाचित कर्म असंख्य भवों के बीत जाने पर भी बिना भोगे नहीं छूटते । उन्हें अवश्यमेव भुगतना पड़ता है । इसीलिए प्रत्येक व्यक्ति को कर्म बन्धनों का भय रखते हुए ऐसी क्रियाओं से बचने का प्रयत्न करना चाहिये । अन्यथा उनसे पीछा छुड़ाना कठिन ही नहीं असम्भव हो जाता है । महर्षि वेदव्यास जी ने कर्मों की विचित्रता बड़े सुन्दर ढंग से एक श्लोक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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