SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समय कम : मंजिल दूर धर्म प्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो ! श्री उत्तराध्ययन सूत्र के दसवें अध्याय की चौथी गाथा में कहा गया है दुल्लहे खलु माणुसे भवे, चिरकालेण वि सब्बपाणिणं । गाढाय विवाग कम्मुणो, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ अर्थात् - हे गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत करो। प्रमाद क्यों नहीं करना ? इसके उत्तर में कहा है-मनुष्य जन्म की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ है । अन्य-अन्य शरीर तो फिर भी मिल सकते हैं किन्तु मानव शरीर मिलना और मानवों में भी कार्य क्षेत्र मिलना, उच्च कुल में जन्म लेना तथा पांचों इन्द्रियों का परिपूर्ण होना अत्यन्त कठिन है। पुण्य के अभाव में ये सब बातें मिलनी महा मुश्किल हैं। हमारे शास्त्र बताते हैं- एकेन्द्रिय से द्वीन्द्रिय में जन्म लेने के लिए अनन्त पुण्य की आवश्यकता होती है और द्वीन्द्रिय से भी त्रि-इन्द्रिय में जन्म लेने के लिये तो उससे भी अनेक गुने पुण्य चाहिए । इसी प्रकार तीन से चार और चार से पांचों इन्द्रियां प्राप्त करने के लिए अधिकाधिक पुण्य कर्मों का उपार्जन करना अनिवार्य होता है। तात्पर्य यही है कि मानव का यह पंचेन्द्रिय शरीर पाने के लिए अनन्तानन्त पुण्यवानी हो तभी इसे पाना सम्भव हो सकता है । ___ इस विषय में कहाँ तक कहा जाय ? आप स्वयं ही गम्भीरतापूर्वक समझने का प्रयास करे तभी भली-भांति समझा जा सकता है कि पंचेन्द्रिय बन गये पर फिर भी अगर अन र्य क्षेत्र में पैदा हुए. जहाँ पुण्य और पाप की पहचान ही न हो सके, नीति और अनीति के अन्तर समझने का अवसर ही न आये तो उस पंचेन्द्रिय शरीर को प्राप्त करने का क्या लाभ उठाया जा सकता है ? इसके अलावा आर्य देश में जन्म ले लिया, उच्च कुल में भी स्थान प्राप्त कर लिया किन्तु सत्संगति नहीं मिली और उत्तम संस्कार प्राप्त नहीं हो सके तो फिर वह क्षेत्र और कुल भी क्या काम आया ? साथ ही यह सब मिल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy