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________________ मानव जीवन की सफलता २४५ करके इस जीवन को ही अपना सब कुछ समझ लेते हैं तथा जीवन पर्यन्त अगणित मनोरथों का सेवन करते हुए कल अमुक कार्य, परसों अमुक और एक वर्ष अथवा दो वर्ष बाद अमुक काम करेंगे, इस प्रकार की स्कीमें बनाते रहते हैं । वे यह भूल जाते है - आगाह अपनी मौत से कोई बशर नहीं । सामान सौ बरस के पल की खबर नहीं। अर्थात् मनुष्य बरसों के प्रोग्राम बना लेता है पर स्वयं की मृत्यु का उसे कोई पता नहीं पड़ता । जिस समय काल सामने आकर खड़ा हो जाता है, वह एक क्षण का भी अवकाश दिये बिना उसके समस्त मनोरथों को समाप्त कर देता है। इसलिए ऐसे अस्थायी और क्षणभंगुर जीवन को विषयभोगों में व्यतीत करना मनुष्य के लिए बुद्धिमानी की बात नहीं है । उसे चाहिए कि वह इस दुर्लभ जीवन का लाभ उठाए अर्थात् अपनी आत्मा को कर्म-बन्धनों से मुक्त करने का प्रयत्न करे तथा अनन्त व अक्षय सुख की प्राप्ति का प्रयत्न करे। अनन्त सुख कैसे प्राप्त हो ? अनन्त सुख की प्राप्ति मनुष्यों को तभी हो सकती है जबकि वह आत्मा को अपने विशुद्ध स्वरूप की ओर ले जाय । जैसे-जैसे आत्मा अपने असली स्वरूप को प्राप्त करती जाएगी वैसे-वैसे उसका कल्याण होना संभव होता जाएगा । पर यह तभी होगा जबकि मनुष्य इन्द्रियों के सुखों से मुह मोड़ने का प्रयत्न करेगा। इन्द्रियों के विषय हैं-स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द । इनमें मनुष्य की आसक्ति नहीं होनी चाहिए । यह सही है कि इन्द्रियां अपना कार्य छोड़ नहीं सकती। कानों में शब्द पड़ेगा तो कान उसे श्रवण करेंगे ही। आँखों के सामने कोई वस्तु आएगी तो वह उसे देखेंगी ही अर्थात् -कोई भी इन्द्रिय अपना कार्य करना बन्द नहीं कर सकती, अतः इन्द्रियों को जीतने का अर्थ यह नहीं है कि उन्हें अपने काम से रोक दिया जाय । आवश्यकता केवल इसी बात की है कि उनके द्वारा ग्रहण किये जाने वाले विषयों में आसक्ति न हो रोग और द्वष न हो। मनोहर रूप देखकर, कर्णप्रिय शब्द सुनकर अथवा सुस्वाद रस का आस्वादन करके रागभाव नहीं होना चाहिए तथा अप्रिय विषयों से घृणा या द्वेष का भाव जाग्रत नहीं होना चाहिये । इन दोनों प्रकार के अवसरों पर सम-भाव रखना सच्चे मायने में इन्द्रिय विषय है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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