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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
किन्तु इन्द्रिय विजय भी सच्चे हृदय से होनी चाहिए। जो व्यक्ति इन विषयों का त्याग करे व यथार्थ में उन्हें त्यागे तभी उसमें लाभ है । आजकल ऐसे बनावटी महात्मा दिखाई देते हैं जो मस्तक पर जटाएँ बढ़ा लेते हैं, शरीर पर भस्म रमा लेते हैं, जल में घण्टों खड़े रहते हैं काँटों पर शयन करते हैं तथा अपने चारों ओर अग्नि जलाकर उसकी आतापना कर लेते हैं। इस प्रकार जाहिर रूप में तो शरीर को कष्ट देते हैं, कर्मेन्द्रियों से उनका काम नहीं लेते, किन्तु मन और ज्ञानेन्द्रियों को वे वश में नहीं रख पाते, आशा और तृष्णा उनकी कम नहीं होती । ऐसे व्यक्तियों का जीवन वृथा ही जाता है। तप का ढोंग करने से कभी आत्मा का कल्याण नहीं होता।
गीता के तीसरे अध्याय में कहा भी है -
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् । इन्द्रियार्थान् विमूढ़ात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥
जो मनुष्य कर्मेन्द्रियों को वश में करके कुछ काम तो नहीं करता, किन्तु मन में इन्द्रियों के विषय का ध्यान करता है वह मनुष्य झूठा और पाखण्डी है।
तात्पर्य यही है कि जटा-जूट बढ़ाने से नेत्रों को लाल कर लेने से, भभूत मिलने से कौपीन धारण कर लेने से अथवा तिलक और छापे लगा लेने से ही कोई योगी नहीं बन जाता। योगी केवल मन से बना जा सकता है। रहीम के कथनानुसार
तन को योगी सब करे मनको बिरला कोय । सह जे सब सिधि पाइये जो मन योगी होय ।।
अर्थात् - तन से नाना प्रकार की धम क्रियाओं का बहाना करने वाले तो अनेक व्यक्ति मिल जाते हैं किन्तु जो मन में धर्मात्मा और सच्चा योगी कहला सकता है ऐसे बिरले ही होते हैं और जो मन से योगी बन जाते हैं वे सहज ही सब प्रकार की दिव्य सिद्धियाँ हासिल कर लेते हैं। मुख्य बात है मन को वासनाहीन और निष्काम बनाने की। जब साधक के मन में किसी प्रकार की कामनाएँ नहीं रहतीं, उसके मन में शत्रुता-मित्रता, इया और द्वष का भावनाएँ लुप्त हो जाती है और वह संसार के समस्त प्राणियों को एक दृष्टि से देखता है तथा सभी को समान समझता है तो उसे परम-पद की प्राप्ति निश्चय ही होती है। किन्तु उसके लिये उसे महान त्याग करना पड़ता है । उन्हें कैसा बनना पड़ता है यह एक छप्पय में बताया गया है
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