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आनन्द प्रवचन: तृतीय भाग
शेखसादी ने गुलिस्तां में लिखा है-
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ऐ कनायत तबन गरम गरदाँ । के बराये ती हेच नेमत नेस्त ॥
-- हे सन्तोष ! मुझे धनी बना दे, क्योंकि संसार की कोई दौलत तुझसे बढ़कर नहीं है ।
संत तुलसीदास जी ने भी यही कहा है-
जहाँ तोष तहाँ राम है. राम तोष नहि भेद | सुलसी देखी गहत नहि, सहत विविध विधि खेद ॥
कवि ने कहा है -- जब मनुष्य दुनियादारी के सम्बन्धों की आशा त्यागकर तथा दौलत को नश्वर मानकर भगवान् की शरण में जाता है. तब उसे संतोष प्राप्त होता है । दूसरे शब्दों में जहाँ संतोष है वहीं भगवान् है, दोनों में कोई अन्तर नहीं है ।
तुलसीदास जी का कथन है-- मैंने स्वयं देखा है और अनुभव किया है कि जिन्होंने भगवान् की शरण प्राप्त की है वे निश्चय ही सुखी हुए हैं तथा इसके विपरीत जो व्यक्ति संसार के सुखों से और धन-दौलत से सुख की आशा करते रहें हैं एवं भगवान से विमुख रहे हैं, वे जन्म जन्मान्तर तक जीवन और मरण का दुःख सहते हैं तथा नाना प्रकार की वेदनाओं को सहते रहते हैं । बाल्यावस्था में वे परतन्त्र रहते हैं, युवावस्था में असह्य कार्य भार से दबे रहते हैं और वृद्धावस्था में तो इन्द्रियों के अशक्त तथा शरीर के क्षीण हो जाने से अपने ही सम्बन्धियों के द्वारा अपमानित होते रहते हैं तथा असह्य दु:ख का अनुभव करते हुए जीवन को समाप्त करते हैं ।
इसीलिए महापुरुष कहते हैं कि जीवन में जैसी भी परिस्थिति सामने आए उसमें संतोष रखो तथा सदा अपने जीवन को सफल बनाने का प्रयत्न करो ।
प्रश्न उठता है कि जीवन को सफल किस प्रकार बनाया जाय ? इस प्रश्न का उत्तर बड़ी गंभीरता तथा बड़े विस्तृत रूप से दिया जा सकता है किन्तु मैं आपको संक्षेप में ही कुछ बताता हूँ ।
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सर्वप्रथम तो जीवन की सफलता के विषय में विचार करते समय हमें यह बात भली-भाँति समझ लेनी चाहिए कि हमारा जीवन अमर नहीं है, किन्तु आत्मा निश्चय रूप से अमर है । आत्मा अमर होने के कारण कर्मबंधनों के फलस्वरूप नाना देहों की धारण रती तथा पुनः पुनः जन्म-मरण के कष्टों को भोगती है । किन्तु अज्ञानी पुरुष आत्मा के अमरत्व पर विश्वास न
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