________________
मानव जीवन की सफलता
२४३
संत चकित होकर बोले-"क्यों ? तुमने सुख-प्राप्ति का मन्त्र जानना चाहा था और मैंने उसके बदले में तुम्हें सुख प्राप्ति के लिए यह अनुपम वस्तु बता दी; क्या इससे भी तुम्हें संतोष नहीं हुआ ?" ___ नहीं भगवन् ! मेरे मन में यह विचार आया कि अगर इस वस्तु से सच्चा सुख प्राप्त होता तो आप इसका उपयोग करके स्वयं ही क्यों नहीं सुखी बन जाते । आप तो वह वस्तु प्रदान कीजिए जिससे आप कुछ भी धन वैभव न रखते हुए भी सुखी हैं।"
__ संत मुस्कुरा कर बोले-"वत्स ! सुम्हारी बात सच है। अगर गम्भीर विचार किया जाय तो सच्चा सुख धन-वैभव में नहीं है । मानव कितना भी सुख क्यों न प्राप्त करले और कितना भी सोना-चाँदी क्यों न इकट्ठा करले उसे सच्चा और स्थायी सुख प्राप्त नहीं हो सकता। अगर तुम्हें सच्चे सुख की अभिलाषा है तो इन सांसारिक सुखों का त्याग करो और अपने मानव जीवन का लाभ उठाकर अक्षय सुख की प्राप्ति करने का प्रयत्न करो । मानव जीवन की सफलता इसी में है कि उसके द्वारा कर्म-बन्धनों से मुक्ति प्राप्त करके सदा के लिए भाव-भ्रमण से बचा जाय ।" वस्तुतः सच्चे संत धनवानों से क्या कहते है ? यही कि
वयमहि परितुष्टा वल्कलस्त्वं च लक्ष्म्या । सम इह परितोषो निर्विशेषा व शेषः ।। स तु भवति दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला। मनसि च परितुष्टे कोर्थवान्को दरिद्रः ।।
--भर्तृहरि
अर्थात् हम वृक्षों की छाल शरीर पर लपेट कर भी सन्तुष्ट हैं पर आप लक्ष्मी से सन्तुष्ट हैं । हमारा और तुम्हारा दोनों का संतोष समान है, कोई अन्तर नहीं है । किन्तु दरिद्री वह है जिसके मन में विशाल तृष्णा है । मन में संतोष होने पर कौन धनी और कोन निर्धन है ? यानी मन में सन्तोष हो तो धनी और निर्धन दोनों समान हैं ।
कवि के कथन का अभिप्राय यही है कि इस संसार में सुखी वही व्यक्ति है जो अपनी प्रत्येक प्रकार की स्थिति में संतुष्ट रहता है, तथा दु:खी वही है जिसे अधिक से अधिक वैभव तथा समृद्धि प्राप्त होने पर भी संतोष नहीं होता । इसलिए जिसे सुखी होना है, उसे अपनी इच्छाओं का, कामनाओं का तथा इन्द्रिय सुखों का त्याग करना चाहिए । जब तक इन सबका त्याग अथवा इन्हें कम से कम नहीं किया जाएगा, सुख की उपलब्धि नहीं हो सकेगी--
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org