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________________ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग किन्तु जो ज्ञानी पुरुष होते हैं वे इस शरीर और इस संसार को कोई महत्त्व नहीं देते । क्योंकि वे जानते हैं - यह देह क्षण-भंगुर है और इसके नष्ट होते ही समस्त सांसारिक उपलब्धियाँ उनके लिए लोप हो जाती हैं। 1 २४२ इसलिए वे अपनी अन्तरात्मा में झांकते हैं तथा अपनी आत्मा को जो कि पुनः पुनः नाना प्रकार के देह पिंजरों में बद्ध होता है, उसे मुक्त होने का प्रयत्न करते हैं । ऐसे महापुरुष सांसारिक सुखों को अस्थायी मानकर उस अनन्त सुख की कामना करते हैं जोकि प्राप्त होने के पश्चात् फिर कभी विलीन नहीं होता । यही कारण है कि उन्हें इस संसार से कोई लगाव नहीं होता तथा वे संसार में रहते हुए भी संसार से विरक्त रहते हैं । सच्चा सुख कहाँ है ? एक महात्मा के पास एक व्यक्ति आया और बोला - "महात्मन् ! आप अनेक दिव्य शक्तियों के धनी हैं और परम सुखी हैं अतः कृपया मुझे भी ऐसा कोई मन्त्र बताइये जिससे मैं भी सुखी बन जाऊँ । महात्मा बोले - "भाई वह देखो ! नदी के किनारे पर एक पारस पत्थर पड़ा है | उसे ले जाओ । उस पारस पत्थर से तुम जितना भी लोहा छुआ। ओगे सब सोना बन जाएगा और तुम्हें संसार में सुख ही सुख प्राप्त होगा ।" 1 सुख की अभिलाषा रखने वाला वह व्यक्ति महात्मा जी की बात सुनकर प्रसन्नता से भर गया और दौड़कर नदी के किनारे से पारस पत्थर उठा लाया । उसे महात्मा जी को दिखाकर बोला- "भगवन् ! यही है क्या वह पारस पत्थर ?" "हाँ यही है, ले जाओ इसे, इसके द्वारा तुम चाहे जितने लोहे को सोना बना लेना और सुख से रहना । व्यक्ति अत्यन्त प्रसन्न होकर वहाँ से रवाना हुआ पर कुछ दूर ही पहुंचा था कि उसके मन में विचार आया "महात्मा जी ने कितनी सरलता से मुझे पारस पत्थर बता दिया ! पर अगर इससे असीम सुख प्राप्त हो सकता है तो स्वयं महात्मा जी ने इसे अपने पास क्यों नहीं रखा ? उन्होंने इसका उपयोग क्यों नहीं किया ? इससे अगर सच्चा सुख प्राप्त हो सकता है तो वे स्वयं भी तो इससे चाहे जितना सोना बना सकते थे ? इससे मालूम होता है कि सोने और चांदी के प्राप्त कर लेने पर भी वह सुख नहीं मिल सकता जो महात्मा जी को अभी मिला हुआ है ।" यह विचार आते ही यह लोटा और संत के पास आकर बोला - "भगवन् ! यह पारस पत्थर मुझे नहीं चाहिए ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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