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________________ समय का मूल्य आंको २३३ भर्तृहरि ने भी वृद्धावस्था का अत्यन्त दयनीय चित्र उपस्थित किया है गात्रं संकुचितं गतिविगलिता भ्रष्टा च दन्तावलिः, दृष्टिर्नश्यति वर्धते बधिरता वक्त्रं च लालायते । वाक्यं नाद्रियते च बान्धवजनो मार्या न शुश्रूषते, हा कष्टं पुरुषस्य जीर्णत्रयसः पुत्रोऽपि मित्रायते ॥ कहा गया है-मानव की वृद्धावस्था अत्यन्त खेदजनक होती है । इस अवस्था में शरीर सिकुड़ जाता है । चाल धीमी हो जाती है, दन्तपंक्ति टूटकर गिर जाती है, दृष्टि मन्द हो जाती है. कान बहरे हो जाते हैं, मुह से लार टपकती है, बन्धुवर्ग बातों से भी सम्मान नहीं करते, पुत्र भी शत्रु हो जाते हैं, यहाँ तक कि स्त्री भी सेवा-सुश्रुषा नहीं करती। __वास्तव में ही संसार में ऐसा होता है । जिस पुत्र को मानव अनेकानेक कष्ट सहकर भी उसे पाल-पोस कर बड़ा करता है, अनीति और बेईमानी से धन कमाकर अपने लिये अनेकानेक कर्म-बन्धन करता हआ भी धन जोडता है वही पुत्र होश सम्हालने के पश्चात् तथा अपनी पत्नियों के आ जाने के बाद पिता की अवज्ञा करता हुआ उन्हें अपशब्द कहता है तथा उसे एक दिन भी सुख से भरपेट अन्न नहीं खाने देता। वृद्धावस्था की दशा किसी नगर में एक सेठ रहता था। अपनी युवावस्था में उसने अपार वैभव इकट्ठा किया तथा वृद्धावस्था में अपने पुत्रों को अपना सम्पूर्ण कारोबार संभाल दिया। परिणाम यह हुआ कि उसके पुत्रों ने समस्त व्यापार और धन को अपने हाथ में कर लेने के पश्चात् पिता को बाहर के बरामदे में एक टूटी चारपाई पर सुला दिया और एक लाठी हाथ में देकर कह दिया-"पिताजी यह लाठी आपके प स रखी है अगर घर में कुत्ते-बिल्ली अथवा चोर भिखमंगे आ जायें तो उन्हें भगाते रहना।" सेटजी बेचारे क्या करते ? निरुपाय हे कर यही कार्य करने लगे। घर के सब सदस्य जब खा चुकते थे तब उन्हें बचा-खुचा खाना बाहर ही मिल जाया करता था। उनकी बहुएँ खाने की थालो और लोटे में पानी रख जाया करती थीं। __कुछ दिन इसी तरह बीत गए । पर सेठजी की पुत्र बधुओं को यह व्यवस्था भी रुचिकर न लगी। वे कहने लगी- ससुर जी बाहर बैठे रहते हैं अतः उन्हें बार-बार बाहर आने-जाने पर घूघट निकालना पड़ता है इससे बड़ी परेशानी होती है । अच्छा तो यह हो कि इन्हें हबेली की ऊपरी मंजिल के चौबारे में रख दिया जाय । एक घन्टी इन्हें दे देंगे ताकि कोई काम होगा तो यह घन्टी बजा देंगे और इन्हें वस्तु पहुंचा दी जाएगी।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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