SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 251
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३४ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग सेठजी के पुत्रों ने अपनी पत्नियों की सलाह से कही हुई बात जब सुनी तो उसे तुरन्त मंजूर कर लिया और अपने पिता को ऊपरी मंजिल पर ले जाकर वहाँ रहने की उनकी व्यवस्था कर दी। बेचारे वृद्ध सेठ ऊपर ही रहने लगे । जब उन्हें भोजन, पानी या किसी अन्य वस्तु की आवश्यकता होती तो वे घन्टी बजा दिया करते थे । घन्टी की आवाज सुनकर नौकर-चाकर उन्हें उनकी आवश्यक वस्तु वहीं दे आया करते थे। यह क्रम भी काफी दिनों तक चलता रहा । पर एक दिन सेठ के दुर्भाग्य से उनका पौत्र खेलता-खेलता ऊपर चला गया और घन्टी को अपने लिये सुन्दर खिलौना समझकर उठा लाया । घंटी ज्योंही नीचे गई बूढ़े की मुश्किल हो गई। घंटी के न बजने से किसी व्यक्ति को उनका ध्यान न आया और भोजन तथा पानी के लिये दबे कंठ से चीखना-चिल्लाना कोई सुन भी न सका। परिणाम यह हुआ कि दो दिन बीत गए । भोजन के बिना तो फिर भी सेठ के प्राण टिके रहते, पर जल के न मिलने से वे कूच कर गए । ___तो बंधुओ, इस जीवन का अनेक बार इस प्रकार अन्त होता है । कहा भी यावद् वित्तीपार्जनशक्त, तावत् निज परिवारे रक्तः । तदनु च जरया जर्जर देहे, वार्ता कोऽपि न पृच्छति गेहे ।। --मोहमुद्गर जब तक धन कमाने की सामर्थ्य रहती है, तब तक कुटुम्ब के व्यक्ति सब तरह से प्रसन्न रहते हैं । इसके बाद बुढ़ापे में शरीर के जर्जर होते ही कोई बात भी नहीं पूछता। इसीलिये मानव को समय रहते ही चेत जाना चाहिये अर्थात् जिस अवस्था में उसका शरीर सशक्त रहता है, समस्त इन्द्रियाँ काम करती हैं तथा वह अपनी इच्छानुसार अपने धन का दान-पुण्य द्वारा सदुपयोग कर सकता है उसे कर लेना चाहिये । धर्माराधन के लिये वृद्धावस्था की प्रतीक्षा करना जीवन को व्यर्थ नष्ट कर देना ही है। हम जानते हैं कि संसार के सभी पुरुष गृह त्याग कर साधु नहीं बन सकते किन्तु संसार में रहकर भी जो मन को संसार में नहीं रमाते वे आत्म-मुक्ति के मार्ग पर सफलतापूर्वक चल सकते हैं । त्याग (दान' मन से किया जाता है। चोरों के द्वारा चुरा ले जाने पर, स्पर्धा के कारण दान देने पर अथवा पुत्र-पौत्रों के द्वारा ले लिया जाने पर वह त्याग धन का त्याग नहीं कहलाता । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy