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समय का मूल्य आँको
धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो !
श्री उत्तराध्ययन सूत्र के दशवें अध्याय में भगवान महावीर ने अपने प्रधान शिष्य गौतम को सम्बोधित करते हुये पुन: पुन: कहा है- “समयं गोयम ! मा पमायए । "
अर्थात् - हे गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत करो ।
प्रश्न उठता है - प्रमाद किस बात में नहीं करना ? खाने-पीने में ? घूमने फिरने में ? कीमती वस्त्राभूषण बनवाने में ? या कि इन्द्रियों के सुखों को भोगने में ? नहीं, भगवान ने इन बातों में प्रमाद न करने के लिये नहीं कहा है । उन्होंने कहा है- आत्मा-साधना करने में प्रमाद मत करो, धर्मध्याय करने में आलस्य मत करो !
गौतमस्वामी से ही यह क्यों कहा गया ?
जिज्ञासा होती है कि भगवान के अन्य हजारों शिष्य थे फिर उन्होंने अपने प्रधान शिष्य गौतम, जो कि स्वयं ही चौदह पूर्व का ज्ञान रखते थे, मति ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान एवं मन पर्याय ज्ञान, इन चारों ज्ञानों के धनी थे । अन्य प्राणियों के मन को समस्त बातें जानने की जिनमें ताकत थी और अढ़ाई द्वीप के अन्दर जिसमें जम्बूद्वीप, धातकी खण्ड और अर्धपुष्कर आते हैं इनमें जितने भी पंचेन्द्रिय प्राणी थे उन सबकी भावनाओं को जानने और समझने की शक्ति थी। ऐसे महाजानी गौतम को ही भगवान ने एक समय का भी प्रमाद न करने को शिक्षा क्यों दी ?
वह इसलिए की प्रधान शिष्य होने पर भी उन्हें जो बात कही जाय उसे अन्य चौदह हजार शिष्य समझें और मानें । व्यवहार में भी हम देखते हैं कि हमारे घरों में बड़े व्यक्ति जैसे कार्य करते हैं छोटे भो उनका ही अनुकरण करने लगते हैं । साधु साध्वी, श्रावक और श्राविका, क्रमशः चार तीर्थ माने जाते हैं | मुख्यता प्रथम तीर्थं साधु को दी जाती है और साधुओं में भी गौतम स्वामी सबसे बड़े थे, अतः उन्हें ही सम्बोधित करके भगवान ने समय मात्र का भी प्रमाद न करने की शिक्षा दी थी। वह केवल उनके लिए ही नहीं थी अपितु चारों तीर्थों के लिए उस समय भी थी और आज भी है ।
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