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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
चित्त में समता का होना हो जीवन की सर्वोत्तम अवस्था है । यह अवस्था उन्हीं को प्राप्त होती है जिनके पूर्व पुण्यों का उदय होता है । समदृष्टि ही योग - सिद्धि का सच्चा स्वरूप है । जो प्राणी अमीर, गरीब, पशु-पक्षी, सर्प एवं बिच्छू आदि समस्त प्राणियों में एक समान चेतन आत्मा को देखता है, तब उसके हृदय में किसी एक के प्रति राग, किसी एक के प्रति विराग, किसी के प्रति वैर-विरोध अथवा किसी के भी प्रति महत्व नहीं रह जाता है। उसे न कोई शत्रु दिखाई देता है और न कोई मित्र । न स्वर्ण पर उसे लाभ होता है और न मिट्टी से उदासीनता । ऐसी अन्तःकरण की अवस्था होने पर उसे आत्मिक आनन्द की प्राप्ति होती है । पर यह समस्त फल श्रद्धा का ही होता है । श्रद्धा अभाव में आत्मा और सम-भाव कभी नहीं आता और सम-भाव या समाधि न आने पर आचरण अथवा क्रियायें पाप रहित नहीं बन पाती ।
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इसलिये बन्धुओ, अगर आपको आत्म-मुक्ति को अभिलाषा है तो सर्वप्रथम हृदय में श्रद्धा को मजबूत बनाओ। इसके दृढ़ होने पर ही ज्ञान एवं चरण अर्थात् चारित्र की प्राप्ति होगी तथा आप शनैः शनैः मुक्ति के पथ पर चल सकेंगे ।
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