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________________ मुक्ति का मूल : श्रद्धा २२७ एक पाश्चात्य विद्वान के विचारों की महत्ता बताते हुए कहा है-- “They are never alone that are accompanied with noble thoughts. सुन्दर विचार जिनके साथ हैं वे कभी एकान्त में नहीं रहते। अभिप्राय. यही है कि जिसके विचार सुन्दर होते हैं वह कभी अकेलापन महसूस नहीं करता क्योंकि उत्तम विचार पर पदार्थ अथवा बाह्य जगत की ओर जाने की अपेक्षा अपने अन्दर की ओर झांकते हैं अर्थात् आत्म-स्वरूप को पहचानने का तथा उसकी अनन्त शक्ति को खोजने और उसे उपयोग में लेने का प्रयत्न करते हैं । इसी प्रयत्न में लगे रहने का कारण उन्हें बाहरो जगत की अपेक्षा महसूस नहीं होती तथा उनके हृदय में बाह्य परिग्रह की बढ़ाने की प्रवृत्ति नहीं जागती। __यह सब होता है श्रद्धा के द्वारा। श्रद्धा होने पर ही व्यक्ति अपने विषय के द्वारा ज्ञान की प्राप्ति करता है तथा ज्ञान प्राप्त कर लेने पर उसे अपने आचरण में उतरता हुआ इन्द्रियों पर संयम रखता है और दान, शील, तप तथा भाव की आराधना करता हुआ मुक्ति का अधिकारी बनता है । स्पष्ट है कि मुक्ति का मूल श्रद्धा है। ___ बंधुओ ! यह कभी नहीं भूलना चाहिये कि श्रद्धा हृदय की अमूल्य वस्तु है और बुद्धि मस्तिष्क की। श्रद्धा में विश्वास होता है और बुद्धि में तके । अगर ये दोनों टकराते हैं तो उनका परिणाम कभी-कभी बड़ा भयंकर रूप ले लेता है। भौतिक ज्ञान की प्राप्ति करने वाले तथा अनेकों पोथियाँ पढ़कर जो व्यक्ति जिन वचनों में अविश्वास करता है तथा आत्मा के सच्चे स्वरूप और उसके सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन एवं सम्यक् चारित्र रूपी गुणों को लेकर कुतर्क करता रहता है, वह हृदय की आस्था को खो बैठता है तथा मुक्ति के मार्ग से भ्रष्ट होकर अवनति अथवा अधोगति की ओर प्रयाण करता है । इसलिये अगर हमें मुक्ति की कामना है तो सर्वप्रथम हृदय में आस्था अथवा श्रद्धा की सुदृढ़ नींव रखनी चाहिये । आपने सुना होगा-श्रद्धा एक-एक कंकर को शंकर बनाने की क्षमता रखती है और तर्क शंकर को भी कंकर बना कर छोड़ता है जिसके हृदय में श्रद्धा होती है उसकी दृष्टि समदृष्टि बन जाती है। महात्मा कबीर का कथन है-- समदृष्टि सतगुरु करो, मेरो भरम निकार । जह देखू तह एक ही साहब का दीदार ।। समदृष्टि तब जानिये, शीतल समता होय । सब जीवन की आतमा, लखे एक सोय ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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