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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
"आप हमेशा मेरी बनाई हुई वस्तु में गलती ही निकला करते हैं, कभी आपने अपनी जिन्दगी में ऐसी वस्तु बनाई भी है ?"
अब बाप बोला-मैं जानता हूँ तुम मुझ से बहुत होशियार हो, और मैं तुम्हारे समान सुन्दर वस्तुएँ बना भी नहीं सकता हूँ किन्तु मैंने तुम्हें अधिक से अधिक होशियार कलाकार बनाने की इच्छा से तुम्हारी कृतियों में कमियां बताई वीं । तुम्हें आज मेरा कहना बुरा लगा है, अतः आज से कुछ नहीं कहूँगा। पर याद रखना अब तुम आगे बढ़ने वाले नहीं हो।"
आज भी हम देखते हैं कि पुत्र थोड़ा बहुत भी पढ़ लिख जाते हैं तो अपने गुरुजनों को और माता-पिता को अपने से हीन समझने लगते हैं । कहते हैं"थे काई जाणों में म्हारो काम आप निपटा लेऊँ।
ऐसे अविनयी व्यक्ति जिनके हृदय में बड़ों के प्रति श्रद्धा और विनय की भावना नाम मात्र की भी नहीं होती वे किस प्रकार सम्यकज्ञान की प्राप्ति करके आत्म-मुक्ति के मार्ग पर बढ़ सकते हैं ? ऐसे व्यक्तियों को जब गुरु के प्रति श्रद्धा नहीं होती तो जिन वाणी या जिन वचनों में रुचि किस प्रकार हो सकती है ?
पूज्यपाद श्री अमीऋषि जी महाराज ने अपने समस्यापूर्ति पद्यों में बड़े सरल और सुन्दर शब्दों में बताया भी है कि किन व्यक्तियों को जिन भगवान के वचनों में रुचि नहीं होती ? पद्य इस प्रकार है
शुभ शब्द अनूप गम्भीर महा,
__ स्वर पंचम वाणि वदे विबुधा । नर नारी पशु सुर इन्द्र शची मिल,
आवत बैन पीयूष छुधा ॥ सब लोक अलोक के भाव कहे,
षद्रव्य पदारथ भेद मुधा । चित मोद अमीरिख होय तब,
_ 'किनको न रुचे जिन बेन सुधा ।। कहा गया है-भगवान के जिन गम्भोर, कल्याणकारी और ज्ञान गरिमा से ओत-प्रोत वचनों को सुनने के लिए स्त्री, पुरुष, पशु, देवता और इन्द्र भी आते हैं तथा उन्हें अमृतमय मानकर अपनी आत्मा की क्षुधा को तृप्त करते हैं और जो वचन, लोक, अलोक षद्रव्य एवं समस्त पदार्थों को कर ककंणवत् स्पष्ट करके समझा देते हैं तथा समस्त प्राणियों के हृदयों को प्रफुल्लित देते हैं वे ही सुधामय वचन किनको नहीं रुचते हैं ?
इसी प्रश्न का उत्तर दूसरे पद्य में दिया गया है जिसे समझना प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है । पद्य में बताया है
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