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मुक्ति का मूल : श्रद्धा
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नहिं जानत जेह निजातम रूप
रता पर द्रव्य चले विरुधा । घट जोर मिथ्याज्वर को तिहसे,
सब दूर भई निज धर्म छुधा ॥ मन लीन परिग्रह आरम्भ में,
प्रभु सीख न धारत भेद दुधा । जु अमीरिख जीव अभव्य हुवे,
तिनको न रुचे जिन चैन सुधा ॥ कहा गया है-जो व्यक्ति अपने आत्म-स्वरूप को नहीं समझता, उसकी अनन्त शक्ति पर विश्वास नहीं करता तया उसमें रहे हुए सम्यक् दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र के गुणों को विकसित करने का प्रयत्न नहीं करता अपितु परपदार्थों में ही आसक्त बना रहता है, ऐसे व्यक्तियों के हृदय में सदा मिथ्यात्व बना रहता है और उस मिथ्यात्व रूपी ज्वर के कारण उसकी आत्मा में धर्म की क्षुधा कभी बलवती नहीं होती। वह सदा स्वार्थ में अन्धा बना रहता है तथा निरन्तर परिग्रह की वृद्धि में लगा रहता है । एक उदाहरण हैतृष्णा का फल ___एक लकड़हारा प्रतिदिन लकड़ियां काटने के लिये जंगल में जाया करता था। दिन भर वह लकड़ी काटता और शाम के वक्त जब भारी गट्ठा लेकर लौटता तो उसे दो-चार आने उन्हें बेचकर प्राप्त होते थे। परिवार में पत्नी और छोटे-छोटे बच्चे थे अतः उन इने-गिने पैसों से सबकी उदर पूर्ति होना कठिन हो जाता था और इसी कारण लकड़हारा काफी कृश हो गया था।
लकड़हारा जिस मार्ग से प्रतिदिन गुजरता था उसी मार्ग पर एक पेड़ के नीचे एक संत ध्यान करते थे। वे उस दुर्बल लकड़हारे को प्रतिदिन उधर से गुजरते हुए तथा दिन भर के परिश्रम स्वरूप एक गट्ठा लकड़ी का लाते हुए देखा करते थे।
एक दिन उन्होंने लकड़हारे से उसके विषय पूछा-लकड़हारे ने अपना पूर्ण दुखद वृत्तान्त उन्हें बताया। संत को दया आई और उन्होंने यह सोचकर कि दो-चार आने से इसका परिवार-सदा भूखा रह जाता है, उन्होंने लकड़हारे पर हथेली पर एक अंक लिख दिया और कहा--"आज से तुम्हें प्रतिदिन एक रुपया अपनी लकड़ी की कीमत का मिल जाया करेगा।" ___ लकड़हारा बड़ा प्रसन्न हुआ और खुशी के मारे लगभग दौड़ता हुआ सा ही घर लौटा। वहां पर अपनी पत्नी से उसने समस्त घटना कह सुनाई। पत्नी बड़ी चालाक थी बोली-"अरे ! जब संत ने दया करके तुम्हारी हथेली
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