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आत्म-साधना का मार्ग
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कुछ समय पश्चात् दूसरे संत राजमहल की ओर आते हुए दिखाई दिये और रानी चेलना ने उसी प्रकार अपनी तीनों अंगुलियाँ ऊँची करके मूक प्रश्न पूछा-उत्तर में दूसरे संत ने भी केवल दो अंगुलियां ऊँची की और एक नीचे झुकाली । रानी ने उन्हें भी अन्दर आने से इन्कार कर दिया।
इसी प्रकार तीसरी बार एक सन्त पधारे और रानी के द्वारा वही क्रिया दुहराई गई। सन्त ने भी स्पष्ट रूप से एक अंगुली नीची करके दो को ऊँचा किया और रानी के इन्कार करने पर उसी प्रफुल्लभाव से लौट गए।
राजा श्रेणिक यह सब अपनी आँखों से देख रहे थे । तीनों संतों का आना, अंगु ले में का ऊँवा नीवा करना और उनका रंच मात्र भी बुरा न मानते हुए लोटा ज ना देखकर चकित रह गए । उत्सुकता को न दबा पाने के कारण रानी चेलना से उन्होंने इस सबका रहस्य पूछा। रानी ने उत्तर दिया"आप कृपया उन संतों से ही यह बात पूछे तो अधिक अच्छा रहेगा।"
श्रेणिक को इस सब आश्चर्यपूर्ण क्रियाओं का भेद जानने की उत्कंठा थी अतः वे प्रथम बार आने वाले संत के समीप गए और उनसे पूछा- "महात्मन् ! आप राजमहल में पधार रहे थे, किन्तु रानी के तीन अंगुलियाँ ऊँची करने पर आपने एक नीचे झकाई वह क्यों ?" - संत ने सहज भाव से उत्तर दिया -"राजन् ! महारानी जी ने तीन अंगुलियां ऊपर की थीं उसके द्वारा उन्होंने मुझ से यह पूछा था कि मेरी तीनों गुप्तियां अर्थात् मन, वचन और काय ये तीनों योग दृढ़ हैं या नहीं ? किन्तु मैंने दो अंगुलियाँ ऊँची करके और एक नीचे झुकाकर यह उत्तर दिया था कि मन और वचन तो मेरे दृढ़ हैं किन्तु काय अर्थात् शरीर संयमित नहीं है, उससे मुझे दोष लगा हुआ है ।" ..
राजा श्रेणिक बड़े चकित हुए और पुनः पूछने लगे-“आपको शरीर से क्या दोष लगा ?"
मुनि बोले--"मैं साधना कर रहा था उस समय किसी व्यक्ति ने सम्भवतः मुझे पाषाण समझकर मेरे पैरों पर अग्नि जलाई और मैंने अग्नि से बचने के लिये अपने शरीर को हिला दिया, इससे अग्निकाय के जीवों की हिंसा हुई और मुझे उस हिंसा का पाप लगा।"
श्रेणिक यह सुनकर स्तब्ध रह गये । सोचने लगे- 'कैसे हैं यह महात्मा जो अपने शरीर को बचाने के लिये भी उसे हिला-डुला लेते हैं तो जीवों की हिंसा मानते हैं तथा उस दोष को स्पष्ट रूप से स्वीकार भी कर लेते हैं।"
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