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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
प्रत्येक को अपनी वाणी का उच्चारण करते स्मय बड़ा विवेक और बड़ी मधुरता रखनी चाहिए । शास्त्रों के अनुसार कर्कश, कठोर, और मर्मकारी भाषा का प्रयोग करना वर्जित है । इसलिए व्यक्ति को अपनी जबान पर सदा अंकुश रखना चाहिए ।
साधुओं के लिए दूसरा महाव्रत सत्य भाषण है तथा पाँच समितियों में दूसरी भाषा समिति है । दोनों का घनिष्ट सम्बन्ध है । मन में आया जो बक दिया, यह साधु का लक्षण नहीं | साधु को बहुत सोच विचार कर अपने शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। क्योंकि
हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः
लाभप्रद और साथ ही चित्ताकर्षक वचन बहुत अलभ्य होते हैं ।
भाषा का स्थान बड़ा ऊँचा माना जाता है । उत्तम भाषा बोलने वाला अ कहलाता है | ठाणांग सूत्र में आर्य नौ प्रकार के माने गए हैं । जातिआर्य, कुल आर्य ज्ञान-आर्य, दर्शन-आर्य, चारित्र - आर्य मन- आर्य, वचन - आर्य तथा काया से आर्य ।
इस प्रकार आठ तरह के लक्षण आर्य पुरुष के लिए बताये गये हैं तथा इसी में एक नवाँ वचन आर्य भी माना गया है । अर्थात् – जो मधुर, हितकर एवं सत्य - भाषी हो वह भी कार्य कहलाने का अधिकारी है । वह तभी यह अधिकार प्राप्त करता है, जबकि अपनी भाषा पर संयम रखता है ।
श्रेणिक चरित्र के एक कथानक से यह बात आपकी समझ में आ सकती है कि सत्यवादिता का कितना जबर्दस्त प्रभाव पड़ता है ।
सच्चा साधुत्व
राजा श्रेणिक साधु-संतों पर तनिक भी आस्था नहीं रखते थे उलटे उन्हें नीचा दिखाने के प्रयत्न में रहते | किन्तु रानी चेलना को जैन धर्म और धर्म गुरुओं पर अटूट आस्था थी तथा वह भी ऐसे संयोग के लिए उत्सुक थी जिसे पाकर वह राजा को सच्चे साधु का महत्त्व बता सके ।
रानी चेलना अत्यन्त बुद्धिमती एवं ज्ञानवती थी। एक बार जबकि राजा श्रेणिक राजमहल में ही थे । एक संत ने महल में प्रवेश करना चाहा । किन्तु रानी ने उन्हें देखते ही अपनी तीन अंगुलियाँ ऊँची की । जिनका अर्थ था—
'अगर आप अन्दर पधारना चाहते हैं तो बताइए कि आपकी मन, वचन एवं काय, ये तीनों गुप्तियाँ या योग निर्मल है या नहीं ?'
मुनिराज ने यह देखकर अपनी दो अंगुलियाँ ऊँची कीं और एक नीची रखी । चेलना ने इस पर संकेत के द्वारा ही अन्दर आने का निषेध कर दिया । संत उसी क्षण उलटे पैरों म थर गति से चल दिये ।
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