SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 227
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१० आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग अब श्रेणिक को अन्य दोनों सन्तों के विषय में भी जानने की उत्सुकता हुई और वे दूसरे सन्त के समीप जा पहुंचे। उनसे पूछा-"महाराज ! आपको तीनों योगों में से कौन-सा दोष लगा ?" सन्त ने उत्तर दिया-"महाराज ! मेरे मन में एक विचार आ गया था। एक बार जब मैं किसी गृहस्थ के यहाँ आहार लेने गया था तो एक बहिन मुझे आहार प्रदान कर रही थी । आहार लेते समय मेरी दृष्टि उस बहन के परों की ओर चली गई तथा मुझे यह विचार आ गया कि मेरी पत्नी के पैर भी ऐसे ही सुन्दर थे। इस विचार के कारण मेरी मनोगुप्ति शुद्ध नहीं रह सकी।" राजा सन्त को स्पष्टोक्ति से अत्यन्त प्रभावित हुए और तीसरे सन्त के समीप भी पहुंचे । उनसे भी उन्होंने प्रश्न किया-"भगवन् ! आप राजमहल में क्यों नहीं पधारे ? क्या आपके योगों में से भी कोई दोषपूर्ण था ?" मुनि ने उत्तर दिया-"मेरी वचन गुप्ति में दोष था महाराज !" "वह कैसे ?" श्रेणिक की उत्सुकता बढ़ रही थी। मुनि बोले-"महाराज ! एक बार मैं किसी मार्ग से गुजर रहा था। उसी मार्ग से एक राजा भी अपनी चतुरंगिणी सेना लेकर अपने किसी दुश्मन से मुकाबला करने जा रहा था । सपीम ही कुछ बच्चे गेंद खेल रहे थे । उनमें से कुछ हार गये और बड़े नरवस हो गये । यह देखकर मेरी जबान से निकल गया-"डरो मत, इस बार जीत जाओगे !" राजा ने यह शब्द सुन लिये और सोच लिया कि जब सन्त ने ही कह दिया है कि जीत जाओगे तो फिर मैं अवश्य जीतू गा । ऐसा सोचकर उसका साहस अत्यधिक बढ़ गया और वह रण में विजय होकर लौटा । आते ही उसने कहा :___ "महाराज ! आपकी कृपा से ही मैंने दुश्मनों को समाप्न कर विजय प्राप्त की।" मैंने चौंकते हुए पूछा- "मैंने आप से क्या कहा था ?" राजा बोला-आपने कहा था न कि "डरो मत इस बार जीत जाओगे।" तो राजन् ! इस प्रकार बच्चों को कहे हुए मेरे शब्दों को उस राजा ने अपने लिये समझ लिया और उनके कारण अपने-आपमें असीम साहस मानकर उसने रणांगण में सैकड़ों व्यक्तियों की जाने लीं। यह सब मेरे असावधानी से कहे हुए शब्दों का प्रभाव था। इसलिये मुझे वचनगुप्ति में दोष लगा और मैं महारानी चलेगा की कसौटी पर खरा न उतर पाने के कारण राजमहल में न जाकर वापिस लौट आया।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy