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________________ आत्म-साधना का मार्ग २०५ इस प्रकार विवेक पूर्वक गमन करने से किसी अन्य प्राणी को कष्ट नहीं होता उसकी किसी प्रकार की हानि नहीं होती उल्टे अपना भी लाभ होगा कि प्रथम तो अन्य प्राणियों को कष्ट पहुंचाने के कारण बंधने वाले कर्मों से बचाव होगा तथा पथ पर बिखरे हुए काँटों से पैरों की तकलीफ नहीं होगी और ठोकर आदि लगने से गिर पड़ने का डर भी नहीं रहेगा। राजस्थानी भाषा में भी देखकर चलने से होने वाले लाभ को बड़े रुचिकर शब्दों में कहा गया है नीचे देख्यां गुण घणा, जीव जन्तु टल जाय । ठोकर को लागे नहीं पड़ी वस्तु मिल जाय ॥ देखकर चलने को कितना कल्याणकर माना गया है ? कहा है नीचे दृष्टि डालकर चलने से एक तो जीवों की दया होगी दूसरा फायदा ठोकर नहीं लगती, तीसरे सडक पर पड़ी हुई वस्तु भी प्राप्त हो सकती है। इस प्रकार आध्यात्मिक और सांसारिक, दोनों दृष्टियों से नीचे देखकर चलने से लाभ होता है। वैष्णव सम्प्रदाय में भी ईर्या समिति की दूसरे शब्दों में पुष्टि की गई है। कहा है दृष्टिपूतं न्यसेत् पादं, वस्त्रपूतं जलं पिबेत् । सत्यपूतां वदेद् वाचं, मनःपूतं समाचरेत् ॥ - मनुस्मृति पद्य का पहला चरण हमारे विषय की पुष्टि करता है । इसमें कहा गया है - अगर तुम्हें चलना है तो दृष्टि से पवित्र भूमि पर अपने कदम रखने चाहिये । दृष्टि से पवित्र भूमि का क्या अर्थ है ? यह नहीं कि नजर डाली और जमीन पवित्र हो गई । अर्थ यही है कि अपनी दृष्दि से मार्ग को देखो कि वह कीड़े-मकोड़े तथा अन्य सूक्ष्म जीवों से युक्त तो नहीं है। अगर वह सूक्ष्म प्राणियों से रहित है तो उसे पवित्र मानकर उस पर कदम बढ़ाओ । ऐसा करने से द्रव्य और भाव दोनों तरह से लाभ है। द्रव्य दृष्टि से जीव हिंसा नहीं होगी और भाव दृष्टि से आत्मा पर पापों का बोझ नहीं बढ़ेगा। पद्य के दूसरे चरण में कहा है – 'जल को वस्त्र से छाने बिना न पियो' । बिना छाना हुआ जल पीने से अनेक बार कई जीव उदर में चले जाते हैं जो वहाँ बढ़कर तकलीफ देते हैं अथवा शरीर के अन्य किसी हिस्से से निकलते हैं जिन्हें 'बाला' कहा जाता है। __ आगे कहा गया है—'वाणी को सत्य से पवित्र करके बोलो।' इस विष में हम कल काफी विवेचन कर चुके हैं । वस्तुत: वही वाणी पवित्र औ उच्चारण किये जाने योग्य है जो सत्य से परिपूर्ण है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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