SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०६ आनन्द प्रबचन : तृतीय भाग पद्य का चौथा और अतिम चरण है- 'मनः पूतं समाचरेत् ।' मन में जो पवित्र विचार आएँ उन के अनुपार कार्य करो। हमारे भाइयों में कोई इसका गलत अर्थ भी ले सकता है कि मन में तो चोरी करने की, जुआ खेलने की, शराब या गाँजा पीने की भावना भी आती है तो क्या उसके अनुसार ही कर लेना चाहिये ? नहीं. यह पहले ही बता दिया गया है कि मन को जो पवित्र लगे वही कार्य करने चाहिये । यद्यपि मनुष्य गलत कार्य करता है किन्तु वह या तो मजबूरी के कारण, आदत के कारण या लोभ तथा स्वार्थ के कारण उन्हें करता है । किन्तु उसका मन उन्हें गलत तो मानता ही है । क्योंकि मन को धोखा नहीं दिया जा सकता। इसलिये स्वयं मन की गवाही से पवित्र माने जाने वाले कार्यों को करने का ही पद्य में आदेश दिया गया है। _ 'ईर्यासमिति' अर्थात् देखकर चलना । यह बात केवल जैन धर्म या वैष्णव धर्म ही नहीं कहता, मुस्लिम धर्म भी यही कहता है । उसका कथन है ___ "जेरे कदम हजार जानस्त ॥" कदम यानी पैर, जेरे यानी नीचे तथा जानस्त याने जन्तु । तो कहा गया है "तुम्हारे पैरों के नीचे हजारों जन्तु हो सकते हैं अत: पूर्ण सावधानी से देखकर चलो।" __ इस प्रकार हमारे वीतराग प्रभू ने ईर्यासमिति के द्वारा सावधानी पूर्वक चलने की जो अज्ञा दी है वह सर्व सम्मत है तथा अन्य धर्म भी उसके पालन का आदेश देते हैं । सज्जन तथा सन्त पुरुष ईर्या समिति का पालन करने में पूर्ण सावधानी रखने का प्रयत्न करते हैं । हमारे लिये तो दशवकालिक सूत्र के पाँचवें अध्ययन में स्पष्ट आदेश दिया गया है-"तुम्हें गोचरी के लिये भी जाना है तो ध्यान रखो किसी के घर में सीढ़ी लगाई हुई है तो उस पर मत चढ़ो।" क्योंकि गिर जाने पर लोग उपहास करेंगे कि सन्त असावधान रहे और गिर पड़े । इसके अलावा कोई बहन या भाई सीढ़ी से कोई वस्तु साधु को बहराने के लिये उतारे तो वह वस्तु भी ग्रहण मत करो क्योंकि कदाचित् वह व्यक्ति गिर पड़े तो साधु के निमित्त से ही उसे चोट लगेगी और उसे कष्ट होगा। इसलिये ईर्या समिति का पालन करना साधु के लिये तो आवश्यक है हो प्रत्येक मनुष्य के लिये भी अनिवार्य है। (२) भाषा समिति—दूसरी भाषा समिति कहलाती है। इस समिति के विषय में भी योगशास्त्र में उल्लेख है अवद्यत्यागतः सर्वजनीनं मित भाषणम् । प्रिया वाचंयमानां, सा भाषासमिति रुच्यते ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy