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________________ सत्य का अपूर्व बल २०३ मौन सर्वोत्तम भाषा है ___एक महात्मा किसी वन में एक वृक्ष के नीचे बैठे हुए थे। सहसा उन्होंने एक मृग को अपने समीप से भागकर किसी दिशा में जाते देखा। उसके नेत्रों से लोप होते ही उसके पीछे पड़ा हुआ शिकारी वृक्ष के समीप आया और महात्मा जी से पूछने लगा - "महाराज ! अभी-अभी एक हिरण इधर आया था वह किस ओर भागकर गया है ?" संत ने शिकारी की बात का कोई उत्तर नहीं दिया, पूर्णतया मौन रहे । अगर वे मृग के जाने की दिशा बता देते तो यद्यपि वह उनका सत्य-भाषण होता किन्तु उससे एक निरपराध प्राणी की हत्या हो जाती । अतः उन्होंने मौन रहना ही उत्तम समझा । वैसे भी कम बोलना तथा अधिक से अधिक मौन रहना ज्ञानवृद्धि, बुद्धि के विकास तथा स्मरण शक्ति को बढ़ाने में सहायक होता है । कहते भी हैं "मौनं सर्वार्थ साधनम् ।" कहने का अभिप्राय यही है कि मानव सत्य बोले पर वह प्रिय और हितकर हो किसी को पीड़ा पहुंचाने वाला और अनर्थकारी न हो। अगर उसके सत्य से ऐसा होता है तो वह सत्य, सत्य नहीं है। आशा है आप मेरे आज के कथन को समझ गए होंगे तथा यह भी समझ गए होंगे कि सही अर्थों में जिसे सत्य कहा जाता है वह कितना महिम मय है और मन, वचन तथा शरीर से किस प्रकार उसकी आराधना करनी चाहिए । छल, कपट तथा मायाचारी के साथ बोला हुआ सत्य न तो दूसरों को लाभ पहुंचाता है और न ही बोलने वाले की आत्मा को उन्नत बना सकता है । उलटे वह आत्मा के पतन का कारण बनता है। इसलिए जो प्राणी अपनी आत्मा का हित चाहते हैं, उसे अधोगति की ओर प्रयाण करने से रोकना चाहते हैं तथा सदा के लिए अनन्त सुख और अनन्त शान्ति की गोद में विश्राम करना चाहते हैं, उन्हें सत्य को उसके शुद्ध रूप में अपनाना चाहिए तथा इच्छित लक्ष्य की पूर्ति के प्रयत्न में जुट जाना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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