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________________ कल्याणकारिणी क्रिया ५ एक दिन उसने जहां वे वृद्ध सन्त ज्ञानाभ्यास करते थे वहीं पर एक मूसल लाकर जमीन में गाड़ दिया और प्रतिदिन उसको पानी से सींचने लगा। __सन्त को उस व्यक्ति का यह कार्य देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। कुतूहल न दबा सकने के कारण उन्होंने एक दिन पूछ लिया-"भाई, इस मूसल को सींचने से क्या लाभ होगा ?" ___ व्यक्ति बोला- "मैं इसे इसलिये सींचता हूँ कि किसी दिन यह हरा-भरा हो जायेगा और इसमें फूल व फल लग जाएँगे।" संत चकित हुए और बोले-"भला यह सूखी लकड़ी का मूसल कभी भी हरा-भरा हो सकता है ?" __"क्यों नहीं, जब आप जैसे बूढ़े व्यक्ति भी अब विद्या प्राप्त कर सकते हैं तो इस मूसल में फल-फूल क्यों नहीं लग सकते ? जरूर लग सकते हैं।" ___ संत को यह सुनकर अपनी ज्ञान-प्राप्ति के विषय में बड़ी आशंका और निराशा हुई । वे अपने गुरुजी के समीप पहुंचे और अपने प्रयत्न के विषय में निराशा व्यक्त की। गुरुजी ने दृढ़तापूर्वक कहा-"यह कैसी बात है ? मूसल जड़ है, परन्तु तुम चैतन्यशील हो । उसकी और तुम्हारी तुलना कैसे हो सकती है ?" संत पुनः बोले-"गुरुदेव, मैं वृद्ध हो गया हूँ, अब कैसे ज्ञान प्राप्त कर सकता हैं ?" ___ श्री वादिदेव सूरि मुस्कराये और बोले-"तुम्हारा यह शरीर बूढ़ा हो सकता है किन्तु इसके अन्दर रही हुई आत्मा बूढ़ी नहीं है। उसमें चैतन्यता का उज्ज्वल प्रकाश ज्यों का त्यों जगमगा रहा है। तुम्हें निराश होने का कोई कारण नहीं है। अभी तुम जितना भी ज्ञान प्राप्त कर लोगे वह तुम्हारी आत्मा का साथी बनकर सदा तुम्हारे साथ चलेगा। तुम्हारा अनन्त यात्रा का पाथेय बनकर वह तुम्हारे साथ रहेगा। ____ गुरु की बात सुनकर संत की आँखें खुल गई और उन्होंने उसी क्षण से बिना किसी की परवाह किये तथा बिना तनिक भी निराशा का अनुभव किये ज्ञानार्जन में चित्त लगाया और कुछ समय बाद ही एक महान् विद्वान् और दार्शनिक बन गये। इस उदाहरण से आशय यही है कि मनुष्य को बिना किसी बाधा की परवाह किये तथा बिना उम्र बढ़ जाने की निराशा का अनुभव किये जीवन के अन्त तक भी ज्ञान-प्राप्ति की आकांक्षा और प्रयत्न का त्याग नहीं करना चाहिये। उन्हें भली-भाँति समझना चाहिये कि: ___“गतेऽपि वयसि ग्राह्या विद्या सर्वात्मना बुधैः ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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