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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
तप की साधना करने से पाप नष्ट हो जाते हैं और ज्ञान की आराधना करने से "आत्मा की अमृतता" प्राप्त होती है |
कोई प्रतिबन्ध नहीं
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इस संसार में हम प्राय: देखते हैं कि मनुष्य ज्ञान की प्राप्ति में बहुत शीघ्र निराशा का अनुभव करने लगता है । वह धन प्राप्ति की आशा, स्वास्थ्य लाभ की आशा और पुत्र-पौत्रादि की बढ़ोतरी की आशा का कभी त्याग नहीं करता किन्तु ज्ञान-प्राप्ति की आशा तनिक-सा कारण बनते ही त्याग देता है । घर-गृहस्थी का कर्तव्य भार मस्तक पर आते ही अथवा उम्र के थोड़ा सा बढ़ते ही वह अपने आपको ज्ञान प्राप्ति के अयोग्य समझने लगता है ।
किन्तु यह उसकी महान् भूल है । ज्ञान-प्राप्ति में समय, काल अथवा उम्र IT कोई प्रतिबन्ध नहीं है । उसके लिये तो 'जब जागे तभी सबेरा' साबित होता | अतः जितना भी समय और जैसी भी सुविधा मिले, उसे ज्ञान का छोटे से छोटा अंश भी ग्रहण करते रहना चाहिये । नीतिज्ञों का कथन भी है:"क्षणशः कणशः चैव विद्यामर्थं च साधयेत् । "
धनवान बनने के लिये तो एक-एक कण का भी संग्रह करें और विद्वान्
बनने के लिये एक-एक क्षण का भी सदुपयोग करें । ऐसा क्यों कहा जाता है ? मनुष्य मुक्ति रूप सिद्धि को हासिल जन्म के प्रयत्न से नहीं, अपितु अनेक सकती है । जैसा कि कहा गया है:
इसीलिये कि सम्यक्ज्ञान प्राप्त करने पर ही कर सकता है और ऐसी महान् सिद्धि एक जन्मों तक प्रयत्न करने पर प्राप्त हो
"अनेकजन्मसंसिद्धिस्ततो याति परां गतिम् ।"
सिद्धि का द्वार अनेक जन्म-जन्मान्तरों तक प्रयत्न करने पर ही खुल पाता
है ।
इस कथन से स्पष्ट है कि मानव को जीवन के अन्त तक भी अगर ज्ञानप्राप्ति का अवसर मिले तो चूकना नहीं चाहिये तथा किसी भी प्रकार की निराशा का अनुभव नहीं करना चाहिये ।
आत्मा का एकमात्र साथी
जैन दर्शन के महान् ज्ञाता श्री वादिदेव सूरि के संयम ग्रहण किया । संयम ग्रहण करने के पश्चात् श्री बयः प्राप्त शिष्य को ज्ञान प्राप्ति की प्रेरणा दी ।
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वृद्ध संत ने अपने गुरु की आशा शिरोधार्य करके ज्ञानाभ्यास करना प्रारम्भ किया और वे प्रतिदिन एकांत में बैठकर कुछ न कुछ याद करने लगे ।
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पास एक वृद्ध पुरुष ने वादिदेव सूरि ने अपने
उन्हें ऐसा करते देखकर पड़ोस में रहने वाले एक व्यक्ति ने यह सोचकर कि बूढ़ा तोता अब क्या राम-राम पढ़ेगा, उनका उपहास करना प्रारम्भ किया ।
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