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________________ कल्याणकारिणी क्रिया ३ बहुत समय पहले मैंने अंग्रेजी की एक पुस्तक देखी थी जिसके चारों कोनों पर चार वाक्य लिखे हुये थे । आपको भी मैं बताना चाहता हूँ कि वे वाक्य कौन-कौन से थे और उनके द्वारा जीवन का किस प्रकार विश्लेषण किया गया था। पुस्तक के पहले कोने पर दिया था-"Blood is life." खून ही जीवन है। हम जानते भी हैं कि खून का शरीर के लिये अनन्यतम महत्त्व है । अगर वह नहीं है तो शरीर का अल्पकाल के लिये टिकना भी कठिन हो जाता है। जो कुछ मनुष्य खाता है उसका पाचन होने पर रस बनता है और उसी से रक्त का और वीर्य का निर्माण होता है जो कि जीवन को टिकाने के लिये अनिवार्य है । जिस व्यक्ति के शरीर में खून का बनना बन्द हो जाता है उसका शरीर किसी भी हालत में अधिक दिन नहीं टिकता । इसलिये कहा गया है कि खून ही जीवन है। अब पुस्तक के दूसरे कोने पर लिखा हुआ वाक्य सुनिये । वहाँ लिखा था"Knowledge is life." अर्थात् - ज्ञान ही जीवन है। ज्ञान के अभाव में जीना कोई जीना नहीं है। पशुओं के शरीर में खून काफी तादाद में होता है किन्तु उनका जीवन क्या जीवन कहला सकता है ? कठिन परिश्रम किया, विवशतापूर्वक बोझा ढोया और मिलने पर चर लिया; बस प्रतिदिन यही क्रम चलता है । तो उन शरीरों में खून रहने पर भी क्या लाभ है उससे ? पशु के अलावा मनुष्य को भी लें तो संसार में अनेकों मूर्ख तथा अज्ञानी व्यक्ति पाये जाते हैं जो कि पशुओं के समान ही पेट भरने के लिये परिश्रम कर लेते हैं और उदरपूर्ति करके रात्रि को सोकर बिता लेते हैं। ऐसे व्यक्ति धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, लोक-परलोक तथा जीव-अजीव आदि किसी भी तत्त्व को समझने का प्रयत्न नहीं करते । अपनी आत्मा के भविष्य की चिन्ता न करते हुये धर्माराधन की ओर फटकते ही नहीं, किसी भी शुभ क्रिया को करने की उनकी प्रवृत्ति नहीं होती। यह सब क्यों होता है ? सिर्फ ज्ञान के अभाव के कारण । तो ऐसी जिन्दगी पाकर भी पाना सार्थक कहलाता है क्या ? नहीं ! जीवन वही सफल कहलाता है जिसे ज्ञान के आलोक से आलोकित किया जाय । अर्थात् मानव को ज्ञान की प्राप्ति करके उसकी सहायता से अपनी आत्मा को जानना-पहचानना चाहिये, उसके विकास और विशुद्धि का विचार करना चाहिये तथा उसमें छिपी हुई अनन्तशक्ति और अनन्तशान्ति की खोज करनी चाहिये, तभी वह अपने मनुष्य-जन्म को सार्थक कर सकता है यानि मुक्ति-पथ पर बढ़ सकता है । कहा भी है:"तपसा किल्विष हन्ति, विद्यायाऽमृतमश्नुते ।" मनुस्मृति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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