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________________ २ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग संसार कहाँ है ? ___एक गम्भीर प्रश्न उठता है कि मनुष्य अगर निरन्तर कर्म में प्रवृत्त रहे तो वह शान्ति कैसे प्राप्त कर सकता है ? दूसरे शब्दों में, अगर वह सदा ही सांसारिक कार्यों में लगा रहे तो संसार-मुक्त कैसे हो सकता है ? __इसका उत्तर यही है कि वही व्यक्ति आदर्श व्यक्ति कहला सकता है जो कर्म करते हुये भी उनमें लिप्त न हो । उसका प्रत्येक कर्म निष्काम और निःस्वार्थ भाव से किया जाय । उदाहरणस्वरूप व्यक्ति माता-पिता अथवा अन्य दीन-दुःखी या रोगियों की सेग का कार्य करे किन्तु उसके द्वारा वह सुपुत्र कहलाने की अथवा परोपकारी की उपाधि पाने की भावना न रखे अथवा उसके प्रति मोह से गृद्ध होकर अपना संसार न बढ़ाये । गम्भीरतापूर्वक सोचा जाय तो संसार बाहर नहीं है, वह मनुष्य के अन्दर ही है । संसार-परिभ्रमण के बढ़ने का कारण बाह्य क्रिया-कलाप महीं हैं वरन् आत्मा में रहे हुये मोह, ममता, आसक्ति तथा यश-प्राप्ति की कामना आदि विभाव ही हैं । अतः एक वन का वासी संयासी भी अगर इन दुर्भाग्नाओं से नहीं बच पाता तो वह संसारी है और दूसरा इस संसार में रहते हुये तथा निरन्तर घोर कर्म करते हुये भी अपने आप में वन की-सी शांति और निर्जनता का अनुभव करता है। वह सच्चा संसारत्यागी और संयासी है। तो मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि शान्ति प्राप्त करने के लिये मनुष्य को अकर्मण्य बनने की अथवा संसार से भागने की आवश्यकता नहीं है, और भागकर वह जायेगा भी कहाँ ? संसार तो उसके अन्दर छिपा हुआ उसके साथ ही चलेगा । अतः अगर व्यक्ति सच्ची शान्ति चाहता है तो उसे अपने अन्दर के संसार को निकाल देना चाहिये । इसका परिणाम यह होगा कि वह जहाँ भी रहेगा संसार-मुक्त रहेगा तथा उसका प्रत्येक कर्म और आचरण शुद्ध होकर आत्मा की उन्नति में सहायक बनेगा । आवश्यकता केवल यही है कि उनकी समस्त क्रियायें सच्चे ज्ञान के साथ की जाये ताकि वे शुभ फल प्रदान करें तथा अपनी क्रियाओं के द्वारा वह ज्ञान को सफल बनाए । अन्यथा उसका प्राप्त होना न होना बराबर हो जायेगा । शास्त्रों में कहा गया है:__"क्रियाविरहितं हन्त ! ज्ञान मात्रमनर्थकम् ।" -ज्ञानसार अर्थात्-वह ज्ञान निरर्थक ही है जो व्रत-नियम, त्याग-प्रत्याख्यान आदि उत्तम क्रियाओं से रहित है। आचरण का महत्त्व मनुष्य के जीवन में आचरण का बड़ा भारी महत्त्व है । वही मानव महामानव बन सकता है जिसका चरित्र उच्च कोटि का हो । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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