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कल्याणकारिणी क्रिया
धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो !
आज हम विचार करेंगे कि जीवन में क्रिया का क्या महत्त्व है तथा इसे किस प्रकार शुद्ध और दृढ़ बनाया जा सकता है ? भगवान महावीर ने क्रिया-रुचि के बारे में कहा है :
दसण-नाण चरित्ते, तव विणए सच्च समिइ गुत्तीसु । जो किरिया भावसूई, सो खलु किरियारुई नाम ।
-उत्तराध्ययन सूत्र अ. २८ गाथा २५ दर्शन, ज्ञान, चरित्र, तप, विनय, सत्य, समिति एवं गुप्ति आदि की सहायता से जीवन को शुद्ध रखते हुये धर्माराधन करने की भावना रखना ही क्रिया-रुचि कहलाती है।
क्रिया-रुचि का संक्षिप्त अर्थ है-क्रिया अर्थात् कर्म में रुचि रखना। किन्तु कर्म से तात्पर्य यह नहीं है कि मनुष्य कुकर्म और सुकर्म की पहचान किये बिना ही अन्धाधुध चाहे जैसा कार्य किये चला जाये । उसे प्रत्येक कार्य को अपने सम्यक्ज्ञान की कसौटी पर कसते हुये सत्य, शील, तप आदि से निर्दोष बनाते हुये तथा व्रत नियमों की सीमा में बाँधकर उसे उच्छृखलता की
ओर जाने से बचाते हुये सम्पन्न करना चाहिये । तभी उसका जीवन पवित्र बन सकता है तथा आत्मा अपने चिर-अभीप्सित लक्ष्य की ओर बढ़ सकती है। स्पष्ट है कि मनुष्य में ज्ञान हो तथा शुभ क्रियाओं के द्वारा आत्मा को निरन्तर कर्म-बन्धन रहित करते जाने की रुचि हो । तभी वह मोक्ष-मार्ग पर गति कर सकता है अर्थात् ज्ञान के विद्यमान होने पर भी अगर अपने आचरण या कर्म से वह मोक्ष-मार्ग पर बढ़े नहीं तो उसका ज्ञान पंगु के समान निरर्थक साबित होता है और वह अपने लक्ष्य की ओर चाहते हुये भी बढ़ नहीं सकता। कहा भी है :
गति बिना पथज्ञोऽपि नाप्तोपि पुरमीप्सितम् । मार्ग का ज्ञाता भी यदि गन्तव्य स्थान की ओर चले नहीं तो अपने इष्ट नगर में नहीं पहुंच सकता।
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