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________________ ६ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग बुद्धिमानों को वृद्धावस्था प्राप्त होने पर भी नवीन-नवीन विद्याओं को अपनी सम्पूर्ण शक्ति द्वारा सीखना चाहिये। वस्तुतः ज्ञान ही जीवन है । इसके अभाव में मनुष्य पशु के समान है और पशुवत् जीवन का प्राप्त करना न करना समान है। अब मैं आपको बताने जा रहा हूँ कि पुस्तक के तीसरे कोने पर क्या लिखा हुआ था ? वहाँ लिखा था-Truth is life. अर्थात् सत्य ही जीवन है। जिसने यह वाक्य लिखा होगा, उसका मंतव्य यही है कि शरीर में खून है, मस्तिष्क में ज्ञान भी है किन्तु अगर हृदय में सच्चाई नहीं है तो पूर्वोक्त दोनों विशेषताओं के होने पर भी जीवन, जीवन नहीं कहलायेगा क्योंकि सत्य की महिमा अनन्त है और वही धर्म का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है। हमारे शास्त्रों में सत्य का अद्वितीय महत्त्व बताते हुये कहा है:__ "तं लोगम्मि सारभूयं, गम्भीरतरं महासमुद्दाओ, थिरतरगं मेरुपव्वयाओ, सोमतरगं चंदमंडलाओ, दित्ततरं सूरमंडलाओ, विमलतरं सरयनहमलाओ, सुरभितरं गन्धमादणाओ।" -प्रश्नव्याकरण सूत्र, २-२४ अर्थात्- सत्य लोक में सारभूत है । यह महासमुद्र से भी अधिक गम्भीर है । सुमेरु पर्वत से भी अधिक स्थिर है । चन्द्रमण्डल से भी अधिक सौम्य है और सूर्य मण्डल से भी अधिक दैदीप्यमान है। इतना ही नहीं, वह शरत्कालीन आकाश से भी निर्मल और गन्धमादन पर्वत से भी अधिक सौरभयुक्त है। __इस प्रकार जहाँ हमारे शास्त्रों में सत्य का अनेक प्रकार से निरूपण करते हुये उसके अनेक अंगों का तथा लक्षणों का विस्तृत विवेचन किया गया है, वहाँ सत्य को सर्वोच्च स्थान भी प्रदान किया गया है। ___ खेद की बात है कि आज के युग में सत्य को कौड़ियों के मूल्य का बना दिया गया है। चंद टकों के लोभ में ही मनुष्य अपने ईमान को व सत्य को बेच देता है । आज का शासन विधान सत्य की रक्षा नहीं कर पाता तथा प्रत्येक व्यक्ति रिश्वतखोरी, झूठी गवाही अथवा इसी प्रकार के असत्य एव अनीतिपूर्ण कार्य करके धनोपार्जन करने के प्रयत्न में लगा रहता है। परिणाम यह होता है कि वह न तो सत्य को ही अपना पाता है और न ही सच्चे सुख की प्राप्ति ही कर पाता है । उसका सम्पूर्ण जीवन हाय-हाय करने में ही व्यतीत होता है। ___ ऐसा क्यों हुआ ? इस विषय में किसी विचारक ने बड़ी सुन्दर और अर्थपूर्ण कल्पना को है। उसने बताया हैपात्र परिवर्तन जब मनुष्य ने अपने जीवन की दीर्घयात्रा पर चलने की तैयारी की और उस पर चलने के लिये पहला कदम बढ़ाया, ठीक उसी समय किसी अज्ञात Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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