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________________ सत्य का अपूर्व बल २०१ विलीन हो जाता है, उसी प्रकार सत्य के सामने असत्य नहीं टिकता उसका लोप हो जाता है । कहने का अभिप्राय यही है कि सत्य सभी धर्मों का मुख्य अंग माना गया है । सभी ने उसकी महत्ता बताते हुए उसे आत्मा का स्वाभाविक और परम पवित्र गुण माना है । प्रत्येक वह साधक जो मुक्ति का अभिलाषी है तथा साधना के पथ पर बढ़ना चाहता है उसे सर्व प्रथम सत्य धर्मं को अंगीकार करना चाहिए | सत्य के अभाव में वह आत्मोन्नति के मार्ग पर एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता कहा भी है "धर्मः सत्ये प्रतिष्ठितः ।" सत्य ही महान् है अतः अन्य समस्त धर्म उसी में समाहित हो जाते हैं । वास्तव में ही जहाँ सत्य प्रतिष्ठित होता है वहाँ से छल, कपट, ईर्ष्या, मिथ्याभाषण एवं अनीति आदि समस्त दुर्गुण पलायन कर जाते हैं आवश्यकता केवल यही है कि मानव दृढ़ संकल्प सहित सत्य की आराधना करे तथा उसे दुर्गा को आने से रोकने के लिए एक सजग प्रहरी के समान नियुक्त करे । क्योंकि तनिक भी असावधानी से अगर एक भी दुर्गुण हृदय में प्रवेश कर गया तो उसके साथियों को आते देर नहीं लगेगी । - सत्य का स्थान सत्य का स्थान केवल वचन में ही नहीं होना चाहिए अपितु मन और शरीर में उसे स्थान देना चाहिये । अर्थात् वचन से सत्य बोला जाना चाहिये, मन में भी सच्चे विचार लाने चाहिये और उन्हीं के अनुसार कर्म में भी सच्चाई होनी चाहिये । किसी कवि ने महात्मा पुरुष के लक्षण बताते हुए कहा भी है मनस्येकं वचस्येकं, कर्मण्येकं महात्मनाम् । मनस्यन्यद् वचस्यन्यत्, कार्ये चान्यद् दुरात्मनाम् ॥ महात्मा पुरुष के मन, वचन तथा कर्म, तीनों में एकरूपता रहती है तथा दुरात्मा अथवा दुर्जन व्यक्ति इन तीनों में भिन्नता रखता है । अर्थात् - वह मन में सोचता कुछ और है तथा कार्य कुछ और ही प्रकार के करता है । स्पष्ट है कि केवल जिह्वा से बोला हुआ सत्य कभी आत्मा को उन्नत नहीं बना पाता, जब तक कि उसके अनुरूप मन में सच्चाई न हो और मन की सच्चाई के अनुरूप क्रिया न की जाय । दूसरे सकता है कि जैसा मन में विचार किया जाय । और जैसा बोला जाय उसी के करने पर ही कहा जा सकता है Jain Education International शब्दों में यह भी कहा जा वैसा ही बोला जाना चाहिये अनुरूप कर्म भी किये जाने चाहिये | ऐसा कि सत्य को सच्चे अर्थों में स्वीकार किया For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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