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________________ २०० आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग जानता है कि आप ज्यादा दाम बताते हैं और वह पन्द्रह रुपये से कहना प्रारम्भ कर देता है। परिणाम यह होता है कि आप कीमत घटाते जाते हैं और वह थोड़ा-थोड़ा बढ़ाता जाता है। बड़ी कठिनाई से एक स्थान पर आकर फैसला आता है और वस्तु की बिक्री होती है। ग्राहक कम से कम में लेना चाहता है और आप अधिक से अधिक वसूल करने की इच्छा रखते हैं । इस पर कितनी कठिनाई दुकान चलाने में होती है ? __ पर इसकी बजाय अगर आप अपनी प्रत्येक वस्तु की ईमानदारी और सच्चाई से एक ही कीमत रखें तो कितनी झंझटों से बच जाय ? कुछ दिन तक तो अवश्य अपनी साख बनाने में आपको प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। पर ज्यों ही लोगों को मालूम हो जायेगा कि आपकी दुकान पर सही और एक ही दाम की वस्तुएँ मिलती हैं तो चटपट बिना भाव-ताव किये आपकी वस्तुएँ खरीदने लगेंगे। आज हम देखते हैं कि कितनेक लोग व्यापार करते समय दाम के सम्बन्ध में झूठी कसमें खा जाते हैं और कसमें भी किसकी ? अपने या अपने परिवार वालों की नहीं, अपितु धर्म की और भगवान् की। ठीक भी है । जब धर्म का पता नहीं और भगवान को देखा नहीं तो उनकी कसमें खाने में बिगड़ता ही क्या है ? पर याद रखो ! यह जीवन ही आत्मा की आदि और अन्त नहीं है । पूर्वकृत पुण्यों के बल पर तो आपको यह मनुष्य की जन्म और बुद्धि मिल गई पर बेईमानी और झट-कपट के कारण बंधते जाने वाले कर्मों के कारण अगले जन्म में सोचने विचारने की शक्ति भी मिलेगी या नहीं यह कोई नहीं जान सकता। - संसार के सभी धर्म सत्य की महिमा की मुक्त कंठ से सराहना करते हैं ! महाभारत में कहा गया हैसर्वेदाधिगमनं सर्वतीर्थावगाहनम् । सत्यस्यैव च राजेन्द्र, कलां नाहन्ति षोडशीम् ॥ समस्त वेदों का ज्ञान और पठन तथा समस्त तीर्थों का स्नान सत्य के सोलहवें भाग के बराबर भी नहीं होता। और तो और, जिस मुस्लिम धर्म को हम अपना धर्म-विरोधी मानते हैं, उसमें भी कहा गया है कि सत्य को अपनाओ, उसे छोड़ो मत ‘बला तस बिसुल हक्का विल्बातले व तकमतुल हक्का।" ___ इसका अर्थ है-सत्य पर आवरण मत डालो, उसे छिपाओ मत। सत्य अत्यन्त बलशाली और पराक्रमी होता है । जिस प्रकार सूर्य के समक्ष अन्धकार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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