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________________ सत्य का अपूर्व बल १६६ कर वह उन्हें अपनी हबेली दिखाने लगा। आलीशान मकान की महात्माजी सराहना करते चले गए। किन्तु जब सेठ अपने सुन्दर शयनगृह में उन्हें ले गया और उसमें रखी हुई दुर्लभ वस्तुओं को तथा उसकी अपूर्व बनावट को दिखाने लगा तो महात्मा जी ने कह दिया--"सेठजी ! सब कुछ ठीक है पर एक भूल आपने इसे बनवाते हुए कर दी है ।" सेठजी चौंक पड़े और बोले--"भगवन् ! क्या भूल हो गई इसका निर्माण करने में ?" - "तुमने इसमें से निकलने के लिए यह द्वार क्यों बनवा दिया ?" संत शांति पूर्वक बोले - सेठजी हँस पड़े और कहने लगे--'वाह गुरुदेव ! अगर इसमें द्वार नहीं होता तो आप और मैं अभी इसमें से आते ही कैसे ? और फिर बिना द्वारा का भी कमरा होता है क्या ?" ___ "पर मेरे भाई ? जब तुम्हारे प्राण इस देह को छोड़कर चले जाएँगे तो लोग इसी द्वार से तुम्हें निकाल कर भी तो ले जाएँगे न ! फिर क्या इस शयनगृह में तुम एक दिन भी अधिक रह सकोगे ? महात्मा जी की बात सुनते ही सेठ को आत्म-बोध हुआ और उसे अपनी भूल महसूस हो गई कि ये सब विशाल मकान और महल मानव के लिए व्यर्थ हैं । आंख मूदते ही इनके महत्व उसके लिए रंचमात्र ही नहीं रहता। इसीलिए कवि ने कहा है कि पाप-कम कर करके बड़े-बड़े बंगले बनाकर तथा घूस और रिश्वत ले लेकर धनवान के रूप में प्रसिद्धि पा लेना और धन कुबेर कहलाकर दुनियाँ में नाम कमाना व्यर्थ है। इससे केवल संसार भ्रमण बढ़ता है। इस उदाहहण से स्पष्ट हो जाता है कि असत्य और छल-कपट मनुष्य को पतन की ओर ले जाते हैं। अतः प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति को सत्य-धर्म की ही आराधना करनी चाहिये । सत्य का पालन करने के लिये यह अनिवार्य नहीं है कि व्यक्ति साधु ही बन जाय । प्रत्येक साधारण व्यक्ति या चोर, डाकू और कसाई भी सत्य का पालन कर सकता है फिर आप तो इतने बड़े-बड़े श्रावक हैं, चाहे तो सहज ही सत्य की आराधना कर सकते हैं। विश्वस बड़ी भारी चीज है । आप पोस्ट ऑफिस में जाते हैं और बिना भाव-ताव किये लिफाफे या कार्ड खरीद लेते हैं । क्या वहाँ आप कार्ड-लिफाफों के पैसे कम करने के लिये कहते हैं ? नहीं क्योकि आपको विश्वास है कि यहाँ इनकी एक ही कीमत है । किन्तु आपकी दूकान पर जब ग्राहक आता है तो वह आपसे कितनी हुज्जत करता है ? ऐसा क्यों ? कारण इसका यही है कि आप बीस रुपये की वस्तु के पहले तीस रुपये दाम बताते हैं। ग्राहक भो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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