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________________ सत्य का अपूर्व बल १६७ किन्तु अन्त में उसने निर्णय देते हुए यही कहा—मैं केवल तुम्हारे पिता की सत्यवादिता से प्रभावित होकर तुम्हें इस बार छोड़ रहा हूँ तथा आशा करता हूँ कि अब तुम कभी चोरी करने जैसा जन्घय कार्य नहीं करोगे। बन्धुओ, इस उदाहरण से यही शिक्षा मिलती है कि मानव चाहे कैसी भी विकट परिस्थिति में क्यों न हो पर उसे सत्य का त्याग नहीं करना चाहिये । सत्य एक ऐसी अद्भुत शक्ति है जिसके प्रभाव से अनहोनी सम्भव हो जाती है और झूठ के कारण बनता हुआ कार्य भी बिगड़ जाता है । झूठे व्यक्ति का कोई कभी विश्वास नहीं करता तथा उसे अप्रतिष्ठा का भागी बनना पड़ता है। भले ही झूठ मधुर शब्दों में बोला जाय, वह हानि ही पहुंचाता है। कवि कुलभूषण पूज्यपाद श्री तिलोक ऋषिजी महाराज ने कहा भी है झूठ बतावत साँच समोकर, जहर मिलाय के देत है गूल । कहत तिलोक करे मन को वश, जाय जमा वश झूठ के सूल ॥ कवि का कथन है मधुर शब्दों में बोला गया झूठ ठीक वैसे ही कहलाता है, जैसे गुड़ के अन्दर विष मिलाकर किसी को दे दिया जाय । इसीलिये प्रत्येक मानव को अपने मन पर संयम रखते हुए असत्य भाषण की प्रवृत्ति का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये । असत्य भावी अविश्वास का पात्र बनता है । जब मैं स्कूल में पढ़ा करता था तो पुस्तक में एक पाठ आया था, आप लोगों ने भी उसे पढ़ा होगा-एक गड़रिये का बालक जब अपनी बकरियों को चराने के लिये जंगल में जाता था तो प्रतिदिन चिल्लाता था-"भेड़िया आया, भेडिया आया।" उसकी आवाज सुनकर भास-पास खेतों में काम करने वाले किसान दो चार तो बड़ी तेजी से दौड़कर आये पर जब देखा कि लड़का झूठ मूठ हो चिल्लाया करता है तो उन्होंने फिर उसके चिल्ल ने पर आना बन्द कर दिया। पर संयोगवश एक दिन भेड़िया सचमुच हो आ गया उसे देखते ही लड़का काँप गया और जोर से चीखा- "अरे दौड़ो बचाओ ! भेड़िया आया है मुझे खा जायेगा।" किन्तु आप समझ सकते हैं कि उसका क्या परिणाम होना था ? यहीं हुआ कि लोगों ने उसके चीखने-चिल्लाने को झूठ समझा और भेड़िया बकरी को उठाकर ले गया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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