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________________ १८८ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग चुकाना है। तीसरी सर्वोच्च और महान भावना है जो देवताओं की अथवा साधु-पुरुषों को कहलाती है । वह है-अपने पर अपकार करने वाले पर भी उपकार ही करना । बुराई का बदला भी भलाई से ही देना। बुराई के बदले बुगई और भलाई के बदले में भलाई करना कोई बड़ी बात नहीं है। महानता तो उसी भव्यप्राणी की मानी जा सकती है जो बुराई के बदले में भलाई करे। वही सच्चा साधु कहला सकता है। संस्कृत के एक पद्य में भी कहा गया है उपकारिषु यः साधुः, साधुत्वे तस्य को गुणः ? अपकारिषु यः साधुः, सः साधुः सद्भिरुच्यते ॥ उपकार के बदले में जो साधु उपकार करे उसमें उसका क्या साधुत्व है ? साधु तो वही कहला सकता है जो अपकार का बदला भी उपकार के रूप में देवे । प्राणी की महानता तभी साबित होती है जब वह दूसरों के किये हए अपकार को तथा अपने द्वारा किये हुए उपकार को भूल ही जाय । जैसा कि संत तुलसीदास जी ने कहा है करी बुराई और ने, आप कियो उपकार । तुलसी इम दो बात को, चित से देहु उतार ॥ " क्या कहते हैं तुलसीदास जी ? वे भी इन दो बातों को भूल जाने की प्रेरणा देते हैं । जो अभी-अभी मैंने बताई है। वैसे भी एक कहावत है-- "नेकी कर और कुए में डाल ।" इसका अर्थ भी यही है किसी के साथ नेकी करके उसे भूल जाओ, कभी भी पुनः स्मरण मत करो। अन्यथा तुम्हारे दिल में अहंकार की भावना पनप जाएगी। आज तो दुनिया इससे उलटी ही चलती है । वह औरों के सदगुणों को अथवा उनकी की हुई भलाई को तो याद नहीं रखती उलटे उनकी की हुई बुराई को अथवा उनके आवेश में कह दिये गये दुर्वचनों को ही याद रखती है । अनेक व्यक्ति तो मृत्यु के समय तक भी किसी से बंधे हुए बैर को नहीं त्यागते और कह जाते हैं- "मेरी लाश भी अमुक व्यक्ति को छूने मत देना।" कितने अज्ञान और अविनय की भावना है यह ? आत्मा को ऐसे बर से कितनी हानि पहुंचती है ? जन्म-जन्मान्तर तक भी उससे बँधे हुए कर्मों से छुटकारा नहीं मिल पाता और वह संसार में पुनः पुनः जन्म-मरण करती हुई भटकती रहती है। ___ इसीलिए शास्त्र कहते हैं कि किसी के उपकार का बदला तो उपकार करके दो ही, साथ ही अपकार करने वाले का भी उपकार करो, अपकार के बदले अपकार करके कर्मों का बन्ध मत करो। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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