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________________ विनय का सुफल १८६ लोकोपचार विनय का पांचवाँ भेद है-'अत्तगवेसणया इसका अर्थ है, आत्मा की गवेषणा यानी खोज करना । आत्मा की खोज से तात्पर्य है आत्मा की शक्तियों को पहचानना तथा उसमें रहे हुए सद्गुणों को विकसित करना। जो व्यक्ति आत्मा को सच्ची पहचान कर लेता है वह न किसी सांसारिक प्रलोभन में फंसता है और न ही किसी वस्तु के अथवा सम्बन्धी के वियोग पर ही शोक करता है । यहाँ तक की अपनी मृत्यु के समीप आ जाने पर भी वह भयभीत नहीं होता, किसी भी प्रकार का दुःख महसूस नहीं करता। क्योंकि वह भली-भांति जान लेता हैन जायते म्रियते वा विपश्चि, ___ न्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित् । अजो नित्यः शाश्वतोष्यं पुराण, न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥ -कठोपनिषद नित्य चैतन्य रूप आत्मा न उत्पन्न होता है न मरता है, न यह किसी से हुआ है और न इससे कोई हुआ है । यह अजन्मा है, नित्य है, शाश्वत है और पुराण है; शरीर के मारे जाने पर भी यह मरता नहीं है। यही बात गीता में भी कही गई है नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि मैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारूतः ॥ इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, जल इसे भिगो नहीं सकता और पवन इसे सुखा नहीं सकता। स्पष्ट है कि आत्मा अजर-अमर है और अनन्त शक्तिशाली है। सम्यक्दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्रमय है । आवश्यकता है केवल इनकी पहचान करने की और इनके द्वारा पूर्वकृत कर्मों की निर्जरा करते हुए इसे पूर्ण विशुद्ध बनाने की । यह तभी हो सकता है जबकि इस पाप रहित, जरारहित, मृत्यु, रहित, शोक रहित, भूख और प्यास रहित आत्मा को जानने की मनुष्य इच्छा करे और इसके सच्चे स्वरूप को समझ कर इसकी मुक्ति का प्रयत्न करने में लग जाये । वह आत्मा में रहे हुए सद्गुणों को जगाए तथा दया एवं अहिंसा की भावना को हृदय में प्रतिष्ठित करता हुआ अपनी आत्मा के समान ही अन्य सभी को आत्मा को समझे । अपने दुख-दर्द की तरह ही औरों के दुख-दर्द को माने । जो प्राणी ऐसा समझ लेता है व स्वप्न में भी किसी अन्य को कष्ट पहुँचाने की कामना नहीं करता। दया का महत्त्व बताते हुए पूज्यपाद श्री अमीऋषि जी महाराज ने भी कहा है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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