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________________ विनय का सुफल १८७ उस समय बोली जाने वाली कविता में से है, जिसमें कहा गया है- भले ही दूसरों ने तुम्हें अनेकों दुःख दिये हैं, किन्तु तुम उसके साथ वैसा मत करो अर्थात् उन्हें दुःख मत दो। दुःख देने वाले को सुख पहुंचाना ही महान् आत्माओं के लक्षण हैं । भगवान् महावीर को भुजंग चण्ड कौशिक ने डसा किन्तु क्या भगवान् के मन में उसका अपकार करने की भावना आई ? नहीं, उन्होंने तो उसे करुणापूर्वक ऐसा प्रतिरोध दिया कि वह असंख्य चीटियों के द्वारा शारीरिक रूप से चलनी के सपान बना दिया जाने पर भी, तथा ‘राहगीरों के द्वारा पत्थर मारे जाने पर भी समभाव रखता हुआ, मरकर आठवें स्वर्ग में गया। सारांश यही है कि भयंकर रूप से डस लेने वाले सर्प को भी भगवान ने आठवें स्वर्ग में पहुंचा दिया। इससे बढ़कर उपकार और क्या हो सकता है ? सती चंदनबाबा की कथा भी आपने अनेक बार सुनी और पढ़ी होगी। मूला सेठानी उसे हथकड़ी बेड़ियों में जकड़ देती है, उसका सिर मुंडा देती है तथा नाना प्रकार के अन्य अनेकानेक कष्ट देती है। किन्तु भगवान् महावीर को उड़द के छिलकों का आहार देने पर सौनयों की दृष्टि देवताओं के द्वारा होती है तो वह मूला सेठानी को ग्रहण करने के लिए कहती हुई कहती है "यह सब आपके उपकार का ही परिणाम है ।" इस प्रकार मूला सेठानी के दिये हुए कष्ट की भी वह उपकार कहकर अपने असख्य निविड़ कर्मों की निर्जरा कर लेती है। इसीलिए कवि कहते हैं-- जो तुझको काँटा बुवे, ताहि बोव तू फूल । तुझको फूल का फल है, वाहि शूल का शूल।। यानी; "तू किसी की बुराई का बदला बुराई से मत दे ! तुझे तो भलाई के बदले लाभ हो होगा और बुराई करने वाले को स्वयं उसके कर्म सजा दे देंगे। तू उसकी बुराई की सजा देकर स्वयं पाप-कर्म का भागी मत बन !" सीधे-सादे शब्दों में कहे गए इन शब्दों में कितना रहस्य है ? कितनी महान् शिक्षा है यह ? अगर मनुष्य इस बात को समझ ले तो उसकी आत्मा की भी निचाई की ओर नहीं जा सकती। महापुरुष इस गुण को अपनाकर ही अपनी आत्मा को उन्नत बनाते हैं। ___ संक्षेप में, इस विषय को लेकर तीन वृत्तियों का रूप दिया जा सकता है। पहली वृत्ति या भावना जो शैतान की कहलाती है, वह है-उपकार करने वाले का भी अपकार करना । दूसरी भावना साधारण मानव की होती है, जो अपने ऊपर उपकार करने वाले का समय मिलते ही उपकार करके बदला Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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