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________________ १८६ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग णाम स्पष्ट है कि चिड़िया बच गई। इस प्रकार उस नन्हीं-सी चींटी ने भी अपनी जीवनदात्री चिड़िया की जान बचाकर अपने उपकार का बदला चुका दिया। आज तो हम देखते हैं कि अनेक वैभवशाली व्यक्ति अपने धन के नशे में चूर हो जाने के कारण अपने पूर्व के उपकारी किन्तु निर्धन मित्रों के उपकार को ही नहीं भूल जाते, अपितु उनको अपना मित्र कहने में भी संकोच और लज्जा का अनुभव करते हैं । ऐसे कृतघ्न पुरुषों के विषय में महर्षि बाल्मीकि ने लिखा है कृतार्था ह्यकृतार्थानां मित्राणां न भवन्ति ये । तान्मृतानापि कव्यादा कृतघ्नानोपभुञ्जते ॥ अर्थात् - जो अपना स्वार्थ सिद्ध हो जाने पर अपने मित्रों के कार्य को पूरा करने की परवाह नहीं करते उन कृतघ्न पुरुषों के मरने पर मांसाहारी जन्तु भी उनका मांस नहीं खाते । कवि के कथन का यही आशय है कि उपकारी के उपकार को न मानना तथा उसके उपकार को भूल जाना महान् कृतघ्नता है और इससे बढ़कर संसार में अन्य कोई पाप नहीं है। इसीलिए महर्षि वेदव्यास महाभारत के वन पर्व में कहते हैं पूर्वोपकारी यस्ते स्यादपराधे गरीयसी। उपकारेण तत् तस्य क्षन्तव्यमपराधिना ॥ जिसने पहले कभी तुम्हारा उपकार किया हो, उससे यदि कोई भारी अपराध भी बन जाय, तो भी पहले के उपकार का स्मरण करके उस अपराधी के अपराध को क्षमा करते हुए उसकी भलाई करनी चाहिए । उपकार क' बदला उपकार से चुकाना भी विनय गुण कहलाता है और लोकोपचार विनय के चौथे अंग के रूप में बताया जाता है । महापुरुष तो सदा अपने अपकारी का भी उपकार ही करते हैं। मराठी भाषा में कहा है - दिघले दुःख पराने, उसणे फेडू नयेचि सोसावे । शिक्षा देव तयाला, करिल म्हणोनि उर्गेचि वैसावे ॥ बंधुओ ! आज के युग में तो कविताएँ मन की लहरों के अनुसार ही लिखी जाती हैं और उसमें शृंगार रस की भरमार होती है। किन्तु प्राचीन काल के कवि अपनी प्रत्येक कविता किसी न किसी प्रकार की शिक्षा को लेकर ही लिखते थे। मराठी का यह पद्य जिस समय मैं स्कूल में पढ़ता था, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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