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________________ १७८ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग भावनाएँ विषय-विकारों की ओर से हटकर शुभ-क्रियाओं को प्रेरणा देने लगती हैं । सम्यक श्रद्धा जीवन-निर्माण का मूल कारण होती है जो मानव को उत्तरोत्तर प्रगति के पथ पर अग्रसर करती है। इसके अभाव में मनुष्य का जीवन ज्ञान को पीठ पर लादे हुए गधे के समान बन जाता है। अर्थात् श्रद्धा के अभाव में ज्ञान केवल दिमाग में बोझ के सदृश ही रह जाता है। उसका कोई उपयोग नहीं होता। अतएव प्रत्येक साधक और तपस्वी को अपना प्रत्येक शुभ कर्म श्रद्धा की स्निग्धता के साथ करना चाहिये, तभी इच्छित फल की प्राप्ति हो सकती है। ' __अब हमारे सामने प्रश्न आता है—कल्पवृक्ष में फूल कैसे लगते हैं ? इस विषय में विवेचन करने की आवश्यकता नहीं हैं क्योंकि उत्तम कुल, उच्चजाति, आर्यदेश, सुन्दर शरीर, विपुल ऐश्वर्य एवं स्वर्ग की प्राप्ति आदि सभी तप-धर्म के फूल अथवा पुष्प हैं। किन्तु हमें केवल पुष्पों से ही सन्तोष नहीं कर लेना चाहिये अपितु इस वृक्ष से फलों को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। ध्यान में रखने को बात है कि तपस्या में जहाँ चाह की भावना रहती है । अर्थात् साधक श्रेष्ठि, राजा या देव-पद आदि को प्राप्त करने की कामना मन में रखता हैं तो स्वर्ग का अधिकारी बन जाता है । पर यह तप का दोष है। तप का सच्चा और सर्वश्रेष्ठ फल केवल मोक्ष है। जो प्राणी निस्वार्थ भाव से तप करता है वह अन्त में आत्म-मुक्ति प्राप्त कर अक्षय सुख का भागी बनता है । इसीलिए महापुरुष प्राणी को बार-बार चेतावनी देते हैं - "करद्वारकपाटभेदि दवरे स्फोतं तपस्तप्यताम् ॥" अर्थात् संसार रूपी कैदखाने के क्रूर द्वारों को चकनाचूर कर देने वाले और मोक्ष सुख को देने वाले इस समृद्ध तप को तुम आराधना करो। बन्धुओ, तप के महत्व को आप समझ गये होंगे और यह भी समझ गये होंगे कि इसे कल्पवृक्ष क्यों कहा गया है। यह जान लेने के बाद अब आवश्यक है कि हम अपनी शक्ति के अनुसार आन्तरिक और बाह्य तप करके कर्म-मल का नाक करें तथा सर्वोच्च गति की प्राप्ति के प्रयत्न में जुट जाएँ। तभी हमारा मानव-जन्म सार्थक कहला सकेगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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