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________________ तपश्चरण किसलिए ? व्याध ऋषि की बात सुनकर चकित हुआ और बोला - " क्या आप सच कहते हैं । इन समस्त पापों का फल अकेले मुझे ही भोगना पड़ेगा ?" “हाँ यह बिल्कुल सत्य है । कोई भी तुम्हारे पापों में हिस्सा बटाने के लिए तैयार नहीं होगा, विश्वास न हो तो जाकर अपने घरवालों से पूछ आओ ! मैं तब तक यहीं खड़ा रहूँगा ।" रत्नाकर व्याध नारद ऋषि के प्रति अनायास ही श्रद्धा उमड़ पड़ी थी अतः उन पर विश्वास करके वह भागा हुआ घर गया और बारी-बारी से अपनी पत्नी, पुत्र, भाई आदि सभी से पूछा - "मेरे कमाए हुए धन में से तो तुम सभी हिस्सा बटाते हो पर मेरे पापों का कष्ट भोगने में कौन-कौन हिस्सा बटाएगा, यह बताओ ? " व्याध की बात सुनकर सब मौन रह गए, किसी ने भी पापों में हिस्सा बटाने के लिए हाँ नहीं की । यहाँ तक कि उसकी पत्नी भी इसके लिए तैयार नहीं हुई । इसीलिए महापुरुष प्राणी को चेतावनी देते है १७७ पापों का फल एकले, भोगा कितनी बार ? कौन सहायक था हुआ, करले जरा विचार ! कर जिनके हित पाप तू, चला नरक के द्वार । देख भोगले स्वर्ग-सुख, वे ही अपरम्पार ॥ तो रत्नाकर व्याध जिन भयंकर पापों का उपार्जन कर रहा था उनका फल भोगने में जब परिवार का एक भी व्यक्ति तैयार नहीं हुआ और उन्होंने कह दिया- "हम तुम्हारे पाप के भागी नहीं हैं" तो व्याध की आँखें खुल गई और वह उलटे पैरों लौटा । नारद जी के समीप आकर वह उनके चरणों पर गिर पड़ा और बोला "भगवन्, मुझे क्षमा कीजिये । आपकी बात यथार्थ है । भी व्यक्ति मेरे पापों में हिस्सा लेने को तैयार नहीं है । मेरा उद्धार कैसे हो सकेगा ?" नारदजी ने कहा - "भाई ! तुम 'राम-नाम' जपा करो ।” पर आश्चर्य की बात थी व्याध "राम राम" शब्द का उच्चारण नहीं कर सका । Jain Education International मेरे घर पर एक अब आप बताइये बजाय उसके व्याध ने प्रसन्नता पूर्वक इस बात को स्वीकार कर लिया और श्रद्धापूर्वक राम के बदले उलटा 'मरा-मरा' मन्त्र का जप करने लगा । इसी मन्त्र के प्रताप से वह वह व्याध आगे जाकर 'बाल्मीकि' मुनि के नाम से प्रसिद्ध हुआ । यह सब श्रद्धा का ही प्रताप था । श्रद्धा ऐसी अमूल्य और चमत्कारिक भावना है कि उसके द्वारा मनुष्य के मन में समस्त दुर्गुण दूर हो जाते हैं तथा For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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