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________________ १५४ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग तीसरा उदाहरण है-अपनी जिह्वा पर संयम न रखने से जिस प्रकार खाद्य पदार्थ अथवा जल गले से होता हुआ उदर में उतर आता है, उसी प्रकार पाप कर्म भी किसी न किसी इन्द्रिय-द्वार से आत्मा में उतर आते हैं । कहने का अभिप्राय यही है कि प्रत्येक साधक को पापोपार्जन से बचने के लिए व्रतों को अंगीकार करना अनिवार्य है। व्रत जितने अंशों में भी ग्रहण किए जाएँगे उतनी ही रोक अशुभ क्रियाओं पर लगेगी और पापों का उपार्जन कम होगा। व्रत एक सुदढ़ गढ़ के समान होते हैं जो नाना प्रकार के सांसाकि आकर्षणों और प्रलोभनों से मनुष्य की रक्षा करते हैं। सच्चे हृदय से मोक्ष की कामना रखने वाले भव्य प्राणी अपने प्राण देकर भी अपने व्रतों की रक्षा करते हैं। सेठ सुदर्शन के विषय में आप जानते ही हैं कि उन्होंने सूली पर चढ़ना कबूल कर लिया किन्तु अपने परस्त्री-त्याग के व्रत का अखंड रूप से पालन किया। परिणामस्वरूप सूली भी उनके लिए सिंहासन बन गई। इसी प्रकार विजयकुमार और विजयाकुमारी की कथा भी हमें पढ़ने को मिलती है । संयोगवश दोनों ने महीने में पन्द्रह दिनों के श ल-व्रत के पालन के नियम ले लिए थे। विजयकुमार ने कृष्णपक्ष के और विजयाकुमारी ने शुक्ल पक्ष के। ___ भाग्यवशात् दोनों का आपस में विवाह हो गया। जब दोनों को एक दूसरे के व्रतों का पता चला तो कितने आश्चर्य की बात है कि दोनों में से किसी के चेहरे पर भी शिकन नहीं आई। ___विजयाकुमारी ने पति से कहा-'अच्छा हो कि आप दूसरा विवाह कर लें और मुझे जीवन भर शील व्रत पालने का प्रेम से अवसर दें।" किन्तु विजयकुमार ने उत्तर दिया-"वाह ! यह कैसी बात कर रही हो ? दूसरा विवाह किस लिए करना ? तुम्हारे समान मुझे भी तो जीवन भर ब्रह्मवर्य व्रत के पालन करने का सुनहरा अवसर मिलेगा। दूसरी शादी करके मैं यह मौका हाथ से नहीं ज ने दूंगा। हम दोनों एक दूसरे से अनासक्त भाव से प्रेम रखते हुए तब तक घर में रहेंगे जब तक मेरे माता-पिता को इस बात का पता नहीं चल जाएगा। जिम दिन उन्हें इस बात का पता चलेगा, हम दीक्षा ग्रहण करके दोनों ही आत्म-कल्याण में जुट जाएँगे।" वास्तव में ही दोनों ने ऐसा किया और जिस दिन इस बात का रहस्य खूला, उन्होंने पंच महाव्रत अंगीकार कर लिये तथा आत्मा का कल्याण किया। ___ जो महापुरुष इस प्रकार महाव्रतों का पालन कर सकते हैं वे तो धन्य हैं, किन्तु व्रतों का अंशतः अर्थात् बने जहाँ तक पालन करने वाले भी अपनी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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