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आत्म-शुद्धि का मार्ग; चारित्र
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आत्मा को निर्मल बना सकते हैं। क्योंकि कर्मों का भार जितना कम हो उतना ही अच्छा । अन्यथा न जाने कितने जन्मों तक उनका परिणाम भुगतना पड़ता है । इसी बात को एक संस्कृत के कवि ने समझाई है :
प्रमृद्ध जनर जिते द्रव्यजाते,
प्रपौत्रा यथा स्वत्ववादं वदंति । भवानंत - संयोजिते पापकार्ये.
विग सुवतं नश्यति स्वीयता नो॥ कर्मों का भुगतान किस प्रकार करना पड़ता है इस पर श्लोक में एक दृष्टांत दिया गया है । कहा है :
वद्ध यानी घर का बड़ा व्यक्ति और प्रवद्ध का अर्थ है वद्ध से भी बहुत बड़ा दादा, परदादा समझिये। तो मान लीजिये किसी के परदादा ने बहुत सम्पत्ति अर्जित की। कई मकान, खेत आदि सभी कुछ उन्होंने बनवाए और लिए । पर वे अपने अधिकार की वस्तुओं को अगर किसी को दे जाते हैं तो उसके पौत्र या प्रपौत्र उस पर अपना स्वामित्व मानते हैं तथा पीढ़ियों से चली आ रही सम्पत्ति को कानूमन लेने, का प्रयत्न करते हैं। वे कहते हैं हमारे पूर्वजों की यह सम्पत्ति है और इस पर हमारा अधिकार है।
तो बंधुओ, जिस प्रकार कई पीढ़ियों की सम्पत्ति का व्यक्ति मालिक स्वयं बन जाता है, उसी प्रकार अनंत भवों के उपाजित कर्मों का भोक्ता भी उसे ही बनना पड़ता है। वेदव्यास जी ने भी कहा है :
स्वकर्मफल निक्षेपं विधान परिरक्षितम् । भूतग्राममिमं कालः समन्तात परिकर्षति ।
-महाभारत अपने- अपने कर्म का फल एक धरोहर के समान है, जो कर्मजनित अदृष्ट के द्वारा सुरक्षित रहता है। उपयुक्त अवसर आने पर यह काल इस कर्म-फल को प्राणिसमुदाय के पास खींच लाता है।
जिस प्रकार एक बछड़ा हजारों गायों के बीच में भी अपनी मां को पहचानकर उसके पास चला जाता है, उसी प्रकार अनेक जन्मों के पाप-कर्म भी अपने करने वाले को पहचान लेते हैं और उसे परिणाम भोगने को बाध्य कर देते हैं।
कहने का अभिप्राय यही है कि पूर्वजन्मों के कर्म भी सांसारिक सम्पत्ति के समान पीढ़ियों तक सुरक्षित रहते हैं और प्राणी को उन्हें भोगना ही पड़ता है। आपने गजसुकुमाल मुनि के विषय में सुना होगा और पढ़ा भी होगा कि
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