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________________ आत्म-शुद्धि का मार्ग; चारित्र परतें उसकी आत्मा पर चढ़ती जाएँगी और उसके मस्तिष्क में भरा हुआ ज्ञान व्यर्थ साबित हो जाएगा । आत्मा को जन्म-मरण से मुक्त करने के लिए आवश्यकता हमें इसी बात की है कि हम पूर्वोपार्जित कर्मों की निर्जरा करें अर्थात् उन्हें समाप्त करें और नवीन कर्म - बन्धनों से बचें। यह तभी हो सकता है, जबकि हम अपना एक-एक कार्य करते हुए सावधानी बरतें यह ध्यान रखें कि ऐसा करने से किसी पाप कर्म का उपार्जन तो नहीं हो जाएगा ? जीवन में पापों का आगम चोरों के समान चुपचाप और अति शीघ्रता से हो जाता है । इसलिए आप जिस प्रकार अपने धन की सुरक्षा के लिए उसे तिजोरी में ताला लगाकर रखते हैं और ऊपर से मकानों की दीवारें भी ऊँची ऊँची और कभी-कभी तो उन पर नुकीले काँच के टुकड़े लगाकर बनवाते हैं । उसी प्रकार अपनी आत्मा के सद्गुण रूपी अमूल्य रत्नों की रक्षा के लिए भी व्रतों की दीवारें निर्मित करें तथा इन्द्रियों के सयम रूपी नुकीले काँचों से पाप रूपी चोरों को आने से रोकें । व्रत ग्रहण करने का अर्थ है - मन और इन्द्रियों को अशुभ की ओर प्रवृत्त न होने देने की प्रतिज्ञा करना अथवा जितना संभव हो, मर्यादा में रहना । इन्हें ग्रहण करने से मनुष्य अनेकानेक व्यर्थ के कर्मों के बन्धन से अपनी आत्मा को बचा सकता है । कर्मों का आगमन किस प्रकार होता है इस विषय में एक बड़ा सुन्दर श्लोक कहा गया है -- गवाक्षात् समीरो ययायाति गेहं तडागं च तोयप्रवाह प्रणाल्या । गलद्वारतो भोजनांद्या पिचंड, तथात्मानमाशु प्रमादश्च कर्मः ॥ १५३ गवाक्ष यानी झरोखा । जिस प्रकार किसी भी मकान में झरोखे से हवा आती है, उसी प्रकार आत्मा रूपी घर में प्रमादादि पारों की हवा इन्द्रियों रूपी झरोखों से आ जती है । किन्तु झरोखों में किवाड़ लगाकर और उन्हें बंद करके हवा को आने से रोका जाता है, उसी प्रकार व्रत-रूपी किवाड़ लगाकर इन्द्रियरूपी झरोखों से भी पाप कर्म रूपी हवा को आने से रोका जा सकता हैं । Jain Education International कर्मों के आगमन को समझाने के लिए दूसरा उदाहरण तालाब में आने वाले पानी के प्रवाह को लेकर दिया गया है। कहा है तेज वर्षा होने पर जिस प्रकार पानी अनेक छोटी-मोटी नालियों के अन्दर बहता तालाब में जा पहुँचता है, उसी प्रकार व्रतों की रोक न लगाने पर पापकर्म रूपी जल इन्द्रिय रूतानियों में से प्रवाहित होता हुआ आत्मा-रूर तालाब में जा पहुँचता है | For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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