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१३ आत्म-शुदि का मार्ग; चारित्र
धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो !
पिछले कुछ दिनों से हमारे यहाँ श्री उत्तराध्ययन के अट्ठ ईसवें अध्ययन की पच्चीसवीं गाथा चल रही है। उसमें क्रियारुचि का स्वरूप क्या है इस सम्बन्ध में बताया गया है। अब तक हमने दर्शन और ज्ञान के विषय में विचार-विमर्श किया है तथा ज्ञान-प्राप्ति के ग्यारह कारणों अथवा स धनों के विषय में भी समझाया है। उन साधनों को क्रिया रूप में लाना ही चारित्र कहलाता है । चारित्र कहा जाय अथवा आचरण, दोनों का आशय एक हो है। चारित्र का महत्व
चारित्र आत्म साधना का एक महत्वपूर्ण ही नहीं वरन् अनिवार्य अंग है। इसके बिना ज्ञान-प्राप्ति का कोई लाभ नहीं उठाया जा सकता । इसलिए प्रत्येक मुमुक्षु का कर्तव्य है कि वह जिन वचनों को सुनकर उन पर श्रद्धा या विश्वास रखे, उन्हें समझे और फिर उन्हें अपने जीवन में उतारे । क्योंकि केवल सुनने और समझ लेने अथवा तोते के समान शास्त्रों का स्वाध्याय कर लेने से ही कभी हमें अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। कहा भी है :
"सर्वे व्यसनिनो ज्ञेया यः क्रियावान् स पंडितः ।" जो मनुष्य सत् प्रवृत्ति नहीं करते हुए केवल पठन-पाठन में ही लगे रहते हैं, वे केवल ज्ञान में आसक्ति रखने वाले ही कहलाते हैं । किन्तु जो पुरुष अपने ज्ञान को आचरण में उतार लेते हैं वे ही क्रियाबान और पंडित कहलाते हैं। क्रिया आवश्यक क्यों ?
प्रश्न होता है कि क्रिया करना आवश्यक किसलिए है ? इसका समाधान यह है कि अगर व्यक्ति ज्ञान के द्वारा धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप तथा संसार की नश्वरता और आत्मा की अमरता आदि के विषय में जान तो लेगा किन्तु सब कुछ जानते हुए भी अपने आचरण और कार्यों को शुभ में प्रवृत्त नहीं करेगा अर्थात् अपने मन एवं इन्द्रियों के द्वारा शुभ क्रियाएँ नहीं करेगा तो कर्मों की
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