SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आनन्द प्रवचन: तृतीय भाग अपनी सरल भाषा में कवि ने बताया है कि यर जगत कोरा भ्रम और मृग मरीचिका है या स्वप्न जैसी माया है । इसलिये हमें इसके आकर्षण में नहीं फसना है । विषय विकार क्षणिक और झूठा सुख प्रदान करके आत्मा को दु.ख के गहरे गर्त में ढकेल देते हैं । अतः हमें इस जीवन को क्षणभंगुर समझकर एक क्षण का भी विलम्ब नहीं करना चाहिये तथा धर्माराधन में जुट जाना चाहिये | अनेक व्यक्तियों की आदत होती है कि वे युवावस्था तो धन का उपार्जन करने में और इन्द्रियों के सुखों को भोगने में बिताते हैं तथा धर्म-कर्म को वृद्धावस्था में करने के लिये छोड़ देते हैं । उन्हें इस बात की परवाह नहीं रहतो कि जिस वृद्धावस्था में वह धर्माराधन करेंगे वह आएगी भी या नहीं ? और आ भो गई तो उस समय उनमें धर्मोपार्जन करने की शक्ति रहेगी भी या नहीं । जल्दी क्या पड़ी है ? एक सेठ अतुल धन का स्वामी था और सदा ऐश्वर्य में झूला करता था । किन्तु उसकी पत्नी बड़ी ज्ञानवती थी । वह अनेक बार कहती १४८ "सेठ जी, धन तो आपके पास बहुत है और इसका भोग भी आपने बहुत कर लिया है। अच्छा हो कि अब आप थोड़ा बहुत समय परमात्मा की भक्ति में लगाएँ । यह शरीर हमें केवल भोगों को भोगने के लिये ही नहीं मिला है । यह तो पारसमणि के सदृश है जिससे हम आत्मा को सुवर्ण के समान निर्मल बना सकते हैं । कहीं ऐसा न हो कि आप आत्मा को सोना न बना पाएँ और यह शरीर रूपी पारसमणि आपके हाथ से चली जाय ।" "क्या वाहियात बात करती हो सेठानी ! अभो मेरी उम्र ही क्या है ? कर लूँगा धर्माराधन ! ऐसी जल्दी क्या पड़ी है ?" सेठ उत्तर देकर टाल देता । संयोगवश एक बार सेठ जी बीमार पड़ गए और सेठानी से बोले" जल्दी से फोन करके डॉक्टर को बुलाओ ।" सेठानी ने डॉक्टर को बुलाया और डॉक्टर ने सेठजी की अच्छी तरह परीक्षा करके दवा का नुस्खा लिख दिया। तत्पश्चात् सेठानी ने दवाइयाँ मँगाई और मँगाकर एक आलमारी में रख दीं । जब दिन भर हो गया तो सेठजी घबराकर बोले - " सेठानी ! क्या अभी तक मेरी दवाइयाँ नहीं आई ?" " दवाइयां तो कभी की आ गई, आलमारी में रखी हैं ।" सेठानी ने शांति से उत्तर दिया । "अरे भली आदमिन फिर मुझे देती क्यों नहीं हो तुम ?" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy