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________________ किन्तु जो आगमों के लगाम लगाकर इन्हें हैं । इन्द्रियों को सही दिशा बताओ १४७ ज्ञाता और ज्ञानवंत हैं वे जिन वचन रूपी डोरी या रोकते हैं तथा आत्मा को निम्न गति में जाने से बचाते आप लोग गृहस्य हैं, भली-भांति जानते हैं कि घोड़े को किस प्रकार रोका जाता है । आप जिस घोड़े पर बैठते हैं, अगर वह लगाम खींचने से आपके काबू में नहीं आता तो आप उसे काँटे की लगाम लगा देते हैं । काँटे की लगाम जब उसे टोंक्ती है तो वह अपनी चंचलता छोड़ने पर है । उतने पर भी नहीं मानता तो आप उसे ऐसे स्थान पर ढेले होते हैं वहां दौड़ाते हैं । कहने का मतलब यह है कि पशु की चपलता मिटाने के लिये तो आप खूब होशियारी से काम लेते हैं । मजबूर हो जाता जहाँ पत्थर और इस संसार में उस किन्तु इन इन्द्रिय रूपी घोड़ों को बहकाने से रोकने के लिये प्रयत्न क्यों नहीं करते । एक पशु पर सवारी करते समय तो आपको बड़ा डर बना रहता है कि कहीं गिर न पड़े और शरीर को चोट न लग जाय । पर इन्द्रियों रूपी इन पाँचों घोड़ों के बहक जाने पर आपको डर नहीं लगता ? उस समय आपको भय नहीं होता कि अगर ये बहक कर कुमार्ग पर चल दिये तो आत्मा को कितनी चोट पहुंचेगी ? जिन विषय सुखों को भोगकर आप आज फ्ले नहीं समाते हैं, क्या वे सदा के लिये आपको उपलब्ध रहेंगे ? नहीं, ये सब बिजली के समान चंचल हैं। आज हैं तो कल नहीं भी रह सकते हैं। आज जिस जवानी पर आप घमंड करते हैं कल वह स्वयं ही आपको छोड़ जाएगी। इसे चार दिन की चाँदनी ही माननी चाहिये । इसके बाद अंधेरी रात निश्चय ही आने वाली है । उस समय आपका यह रूप और लावण्य नष्ट हो जाएगा। आज तो अपको सौन्दर्य और बल का धनी मानकर आपके सामने आपकी खुशामद करते हैं, वे ही कल आपको देखकर नाक-भौं सिकोड़ने लगेंगे । इसलिये इस ससार को और इस जीवन को स्वप्न की सी माया मानकर चेतो और उस सुख के लिये प्रयत्न करो जो सदा अक्षय रहेगा । कवि सुन्दरदास जी ने प्राणी को इस संसार को स्वप्न और भ्रम मानकर चेतावनी दी है । कोउ नृप फूलन सेज पर सूतो आई, जब लग जाग्यो तौ लौं अति सुख मान्यो है । नींद जब आई, तब वाही कूं स्वपन आयो, जाय पर्यो नरक के कुन्ड में यों जान्यो है । अति दुख पावे पर निकस्यो न क्यों हो जाहि, जागि जब पर्यो तब स्वपन बखान्यो है । यह झूठ वह झूठ जगत स्वपन दोऊ, 'सुन्दर' कहत ज्ञानी सब भ्रम मान्यो है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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